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________________ सुनो और गुनो ! ३२५ आप लोगों के भीतर उठने लगें तो देखिये, आप लोगों का कितने जल्दी जगत् से उद्धार नहीं होता है ? परन्तु समय का परिवर्तन तो देखो कि हम भगवान् के इस दुःखापहारक और सुख-कारक दिव्य सन्देश को सुनाने के लिए सर्वत्र भटक रहे हैं, पर भगवान का कोई सच्चा भक्त आगे बढ़कर आता ही नहीं है और सब लोग दूर-दूर भागते हैं कि कहीं महाराज हमें मूड़ न लेवें ! परन्तु भाई, हम यह सब जानते हुए भी आपको बार-बार सुनाने का प्रयत्न करते हैं। इसका कारण यही है कि गुरु का हृदय माता के समान होता है। जैसे बच्चा दूध नहीं पीना चाहता. तो माता उसे अनेक प्रकार से फुसलाकर दूध पिलाने का यत्न करती है, वच्चा दवा नहीं पीना चाहता तो हाथ पकड़कर और मुख फाटकर भी जबरन उसे दवा खिलाती है। बच्चा ऐसे समय रोता है, हाथपैर भी फटकारता है और भला-बुरा भी कहता है तो वह उस पर कोई ध्यान नहीं देती है और बच्चे की शुभ कामना से प्रेरित होकर वह यह सब करती है। माता की भावना सदा यही रहती है कि मेरा वालक स्वस्थ और नीरोग रहे। हमारी भी सदा यही भावना रहती है कि आप लोग इस भव-रोग से मुक्त हों और सच्चे सुखी बनें। इसी से प्रतिदिन सुनाते हैं और सोचते हैं सुनाते-सुनाते कभी तो किसी न किसी पर कुछ न कुछ असर तो होगा ही। कहा भी है कि अगर लाखों-करोड़ों का करे कोई दान पुण्य प्राणी मगर लव मात्र को संगत खास मुक्ति दिखाती हैं" यदि कोई व्यक्ति लाखों करोड़ों रुपयों का भी दान-पुण्य कर दे और उसके फल के सौ ढेर भी खड़े कर दे तो भी एक लवमात्र के सत्संग का उससे भी महान् फल होता है। एक मुहूर्त में एक करोड़ साठ लाख सतत्तर हजार दो सौ सोलह लव होते हैं। ऐसे एक लव-मात्र की भी सत्संगति मनुष्य को महाफल देती है। भाइयो, आपको पता है कि वाल्मीकि जैसा डाकू पुरुष भी महात्मा बन गया, तुलसीदास जसा कामी पुरुप भी सन्त बन गया, और चिलायती कुमार भी साधु बन गया। यह सब सत्संगति का ही प्रताप है । और सदुपदेश के सुनने का प्रभाव है । एक त्यागी पुरुप के वचन सुनने से जीवन भर का जहर दूर हो जाता है । जिस बीमार के वचने की आशा न रही हो, वह यदि किसी डाक्टर को एक इंजेक्शन से आंखें खोल दे और वच जाय तो क्या यह उस डाक्टर और औपधि का प्रताप नहीं है ? इसी प्रकार त्यागी-महात्मा के वचन
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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