SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिंहवृत्ति अपनाइये ! ३०७ 'एकाकिनस्ते विचरन्ति वीराः' । अर्थात् जो वीरपुरुष होते हैं, वे सर्वत्र अकेले ही निर्भय होकर विचरते हैं । सिंह अपनी इस वीरता के कारण ही वन का राजा कहलाता है । अन्यथा--- 'मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्ण केन कानने' अरे सिंह को मृगराजपना जंगल में किसने दिया है ? किसी ने भी नहीं दिया है। किन्तु वह अपने अपूर्व शौर्य और पराक्रम से स्वयं वन का राजा बन जाता है। सिंह के पास न तो शस्त्र हैं और न कवच-टोप आदि ही । न रहने को कोट किले आदि ही। परन्तु अपनी वीरता के कारण अनेक शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित पुरुषों के साथ भी टक्कर लेता है। इसका कारण यह है कि उसके भीतर अदम्य साहस और महान् आत्मविश्वास होता है। वह बड़े-बड़े मन्दोन्मत्त हाथियों को देखकर भी मन में यह स्वाभिमान और आत्मविश्वास के साथ कहता है कि 'सत्त्वं प्रधानं न च मांसराशिः' अर्थात् बल प्रधान है । किन्तु मांस की राशि प्रधान नहीं है। अपने इस आत्मविश्वास के ऊपर ही वह बड़े बड़े हाथियों के छक्के छुड़ा देता है और उनके मस्तक पर किये गये एक ही पंजे के प्रहार से मदान्ध हाथी चिंघाडते हुए चारों ओर भागते नजर आते हैं। साधारण लोगों के तो उसकी गर्जना सुनने मात्र से ही प्राण निकल जाते हैं । जिस व्यक्ति में सिंह के समान वीरता भरी होती है, उसे ही 'नरसिंह' और 'पुरुपसिंह' कहा जाता है । जैसा कि नीति वाक्य है-- उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः । अर्थात् -- उद्योग करनेवाले पुरुषसिंह को लक्ष्मी स्वयं प्राप्त होती है । दृष्टान्त एक देशी होता है, अतः सिह की उपमा देते हए उसकी वीरता से ही अभिप्राय है, उसके किसी अवगुण से नहीं। जवारी के उत्तम दानों को मोतियों की और मक्की के दानों का पीला चमकता रंग देखकर मोहरों की उपमा दी जाती है, तो उसमें केवल वर्ण-समता देखकर ही दी जाती है। अन्यथा मूल्य की अपेक्षा मोती और जवारी के दानों में तथा सोने और मक्की के दानों में आकाश-पाताल जैसा अन्तर है। यह छोटी वस्तु को बड़ी उपमा दी गई है । कही पर बड़ी वस्तु को छोटी-उपमा दी जाती है। जैसे यह तालाव कटोरे जैसा जलपूर्ण है। परन्तु कटोरे का जल तो एक बालक भी पी लेता है, पर तालाव का जल तो हजारों पशुबों के द्वारा पिये जाने पर भी समाप्त नहीं होता है । इस प्रकार उपमालंकार के अनेक भेद होते हैं । जितनी भी उपमाएँ दी जाती है, एक देशीय ही होती है।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy