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________________ ३०० प्रवचन-सुधा गुण है हृदय की कोमलता । दूसरा गुण है . लेना और देना । लेना गुण और देना साझ । तीसरा गुण है-विकथा, निन्दा और व्यर्थ के वाद-विवाद से दूर रहना । आर्यपुरुप प्रयोजन और आत्मकल्याण की बात के सिवाय निरर्थक या पर-निन्दा और विकथा की बात न स्वयं कहेगा और न सुनेगा ही। आर्यपूरुप मन से कभी दूसरे की बुरी बात का चिन्तन नहीं करते, कान से सुनते भी नहीं है और मांख से किसी की बुरी बात देखते ही नहीं हैं। वे आंखों से जीवो को देखकर यतनापूर्वक चलते हैं, वचन से दूसरों के लिए हितकारी प्रिय वचन बोलते हैं और मन से दूसरों की भलाई की बात सोचते हैं। इस प्रकार उनके मन, वचन और काय मे भी आर्यपना रहता है। आर्य पुरुपों का लेन-देन, रीति-रिवाज और खान-पान सभी कुछ आर्यपने से भरा रहता है। उनकी सदा यही भावना रहती है नहीं सता किसी जीवको, झूठ कभी नहि कहा करू, पर-धन, वनिता पर न तुभाऊ, सन्तोषामृत पिया करू । अहंकार का भाव न रक्खू, नहीं किसी पर क्रोध करू', देख दूसरों की बढ़ती को, कभी न ईया भाव धरूं । रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार करु, बने जहां तक इस जीवन में औरों का उपकार करूं । मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे, दीन दुखी जीवों पर मेरे उरसे करणा-स्रोत बहे । दुर्जन र कुमार्ग-रतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे, साम्यभाव रक्खू मैं उन पर ऐसी परिणति हो जाये। गुणीजनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे, बने जहां तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे, होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं द्रोह न मेरे उर आवे, गुण-ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे । आज लोग धर्म-धर्म चिल्लाते है और अपने को आर्य कहते हैं । परन्तु उनके भीतर धर्म कितना है और आर्यपना कितना है, यह देखने की बात है। अभी मध्यप्रदेश के रायपुर नगर मे आचार्य तुलसी का चौमासा हुभा ! वहां पर उनकी 'अग्नि परीक्षा' नामक पुस्तक को लेकर अपने को सनातन धर्मी और आर्य कहने वाले लोगों ने कितना उपद्रव किया, पंडाल जला दिया और सती-साध्वियो तक पर अत्याचार करने पर उतारू हो गये। आचार्य तुलसी का वहां पर चौमासा पूरा करना भी कठिन कर दिया । आप लोगों को ज्ञात
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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