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________________ आर्यपुरुप कौन ? २६३ मनुष्यों को ही ठहरने के लिए आप उसमें साझ दे सकते हैं । अब यदि दस आदमी आजावें और कहें कि हमें भी साझ दो-ठहरने दो । तव हाथ जोड़ने पड़ते हैं और कहना पड़ता है कि साहब, आप स्वयं ही देख लीजिए कि जगह कितनी है । मेरी ओर से इनकारी नहीं है । वे स्थान की कमी देखकर स्वयं ही चले जावेंगे । पर स्थान के रहते हए इनकार करना यह आर्यपने के प्रतिकूल है । सबको सहयोग वन्धुओ, एक महात्मा जंगल में एक झोंपड़ी बनाकर रहते थे। पानी वरसने लगा तब एक व्यक्ति ने माकर पूछा--क्या मुझं भी ठहरने के लिए स्थान है ? महात्मा जी वोले-हां, एक व्यक्ति के सोने का स्थान है, पर दो व्यक्ति इसमें बैठ सकते हैं, इस प्रकार कहकर वह महात्मा उठकर बैठ गया और उसे भी बुला करके भीतर बैठा लिया। इतने में दो व्यक्ति और भी भोजते हुए आये और बोले—महात्मा जी क्या भीतर और भी जगह है ? महात्माजी बोले-हां भाई, दो के बैठने की जगह है और चार व्यक्तियों के खड़े रहने की जगह है, यह कहकर वे दोनों खड़े हो गये और उन दोनों को भी भीतर तुला करके खड़ा कर लिया। भाई, यह कहलाता है आर्यपना । सच्चे आर्य तो दूसरे को इनकार करना जानते ही नहीं है। यदि आप लोग इतना त्याग नहीं कर सकें, तो भी शक्ति के अनुसार तो त्याग करना ही चाहिए और उदारता भी प्रकट करना चाहिए । ___ यहां कोई पूछे कि यह 'साझ' क्या है ? यह तो खाक प्रवृत्ति को बढ़ावा देना है । जिसे जो दिया जाता है, उसे वह खा जाता है। वह लौटकर वापिस नहीं आता है। भाई, आप लोगों को ऐसा नहीं सोचना चाहिए । देखोकिसान जमीन मे धान्य बोता है, तो सारी जगह का धान्य तो वापिस नहीं माता है ? खेत मे दो-चार हाथ जमीन ऐसी भी होती है, कि जिसमें डाला गया वीज वापिस नहीं आता है । अव यदि कोई व्यक्ति आकर कहे कि भाई, तेरे खेत की यह जमीन तो बेकार है, तू इसे मुझे दे दे तो क्या वह किसान उसे दे देगा ? नहीं देगा। भाई, कितने ही लोग लेने में सार समझते हैं, तो कितने ही देने में सार समझते हैं। जो देने में सार समझते हैं, उन्हें ही आर्य पुरुष समझना चाहिये। धन्ना सेठ का दान बन्धुओ, शास्त्रों में भगवान ऋषभदेव के तेरह पूर्व भवों का वर्णन मिलता है। इनमें पहिला भव धनावह सेठ का है। उसके पास अपार सम्पत्ति थी
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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