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________________ सफलता का मूलमंत्र : आस्था २७६ लग्न ठीक जंच जाती तो रुपये लेते, अन्यथा वापिस कर देते थे। और साफ कह देते थे कि मेरे पास लग्न का मुहूर्त नहीं है। वे विवाह की लग्न ऐसी निकालते थे कि कभी कहीं पर भी वारह वर्ष से पहिले विधुर या विधवा होने का सुनने में नहीं आया । उनके चार शिप्य थे, उन्होने अपनी विद्या किसी को नहीं पढायो । जब उनसे किसी ने इसका कारण पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि अपात्रों को ऐसी विद्या देना उसे बदनाम कराना है। वे प्रायः कहा करते थे कि ___ 'व्यर्थस्त्वपात्र व्ययः' अर्थात् अपात्र को पढ़ाने में समय का व्यय करना व्यर्थ है। जव उत्तम विद्या सुयोग्य पात्र को दी जाती है तो वह यश-वर्धक होती है अन्यथा अपयश और अपमान का कारण होती है। जब योग्य पात्र को विद्या दी जाती थी, तभी योग्य विद्वान् पैदा होते थे । ठाली बात करे सव आय के देन की बात करे नहीं कोई । पूछत आगम ज्योतिष वैदिक पुस्तक काढ कहो हम जोई। काम कहो हम है तुम सेवक आरत के वस वोलत सोइ । दिल ठरे तो दुवा फुरे 'केसव, मुहरी वात से काम न होई ॥१॥ हां, तो वह मूलदेव उस आश्रम से चल करके किसी बड़े नगर में पडितों के मुहल्ले में पहुंचा । उसने लोगो से पूछा कि यहाँ सर्वोत्तम ज्योतिपी कौन हैं ? लोगो ने जिसका नाम बताया उसका पता-ठिकाना पूछता हुआ वह उसके घर पर पहुंचा । वहा पर अनेक लोग अपने अपने प्रश्न पूछने के लिए बैठे हुए थे ओर ज्योतिपी जी नम्बर बार उत्तर देकर रवाना करते जाते थे। उनकी आकृति और भाव-भगिमा से मूलदेव को भी विश्वास हो गया कि ये उत्तम ज्योतिपी है। अतः वह भी उन्हें नमस्कार करके यथास्थान वैठ गया । जब अन्य सब लोग चले गये और इसका नम्बर आया तो इसके पास भेंट करने को कुछ भी नहीं था । और यह जानता था कि . रिक्तपाणिर्न पश्येद् राजानं देवतां गुरुम्' अर्थात् खाली हाथ राजा, देवता और गुरु के पास नहीं जाना चाहिए । उस मर्यादा के अनुसार उसने अपने हाथ में पहिनी हुई हीरा की अगूठी उनको भेंट की और उनके चरण स्पर्श करके विनयावनत होके बैठ गया । ज्योतिपी ने पहिले तो आगन्तुक का मुख देखा, पीछे अंगूठी की ओर दृष्टि डाली । फिर पूछा---'कहिये, आपको क्या पूछना है ? उसने अपना राभि मे भाया हुआ
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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