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________________ सफलता का मूलमंत्र : मास्था २७७ शुभाशुभ फल को जानना स्वप्न निमित्तज्ञान है । स्वप्न दो प्रकार के होते हैं---- सफल और निप्फल । शरीर में वात पित्तादि के विकार होने पर आनेवाले स्वप्न निष्फल होते हैं । किन्तु जब शरीर में वात-पित्तादि का कोई भी विकार नहीं हो उस समय देखे हुए स्वप्न फल देते हैं। रात्रि के विभिन्न समयों में देखें गये स्वप्न विभिन्न समयों में फल देते हैं। स्वप्नशास्त्र में ७२ प्रकार के स्वप्न बतलाये गये हैं। उनमें ३० उत्तम जाति के महास्वप्न माने गये हैं। उनमें से गज, वृपभ आदि चौदह महास्वप्नों को तीर्थकर और चक्रवर्ती की माताएं देखती हैं, सात को नारायण की माताए', चार को बलभद्र की माताएं और किसी एक को मांडलिक राजा की माताएं देखती हैं। गेप ४२ स्वप्न साधारण माने जाते हैं। उनमें से कुछ तो ऐसे हैं कि देखने में बुरे प्रतीत होते हैं, परन्तु उनका फल उत्तम होता है । जैसे यदि कोई स्वप्न देखे कि मैं दिष्टा में गिर पड़ा हूं और मल लिप्त हो रहा हूँ तो ऐसे स्वप्न का फल राज्य-प्राप्ति एवं धन-ऐश्वर्य लाभ आदि बतलाया गया है। कुछ ऐसे भी स्वप्न होते हैं जो देखने और सुनने में तो अच्छे मालूम पड़ते हैं, परन्तु उनका फल बुरा होता है। जैसे कि स्वप्न में स्नान करता हुआ अपने को देखे, दूसरे के द्वारा अपने को माला पहिरायी जाती हुई देखे तो इसका फल मरण या संकट आना आदि वत्तलाया गया है । पहिले लोग इन सर्व प्रकार के निमित्तों के ज्ञाता होते थे और साधुओं को विशिष्ट तपस्या के कारण अष्टाङ्ग महानिमित्त का ज्ञान तथा ऋद्धि सिद्धि की प्राप्ति हो जाती थी। तभी तो शास्त्रों में 'णमो अठ्ठग महानिमित्त कुसलाणं' अर्थात् 'अष्टांग महानिमित्त शास्त्र में कुशल साधुओं को मेरा नमस्कार हो ऐसे मंत्र वाक्य पाये जाते हैं, और दैनिक स्तोत्रों में भी ऐसे पाठ मिलते हैं ---- प्रवादिनोऽष्टाङ्गनिमित्तविज्ञाः स्वस्ति क्रियासु परमर्पयो नः । अर्थात् ---अष्टांग निमित्तों के जानने वाले प्रवादी परम अपिगण हमारा कल्याण करें। आज लोगों की इन बातों पर आस्था नहीं है और वे कहते हैं कि ये सब झूठ है। परन्तु भाई, यथार्थ में बात ऐसी नहीं है। ये सब निमित्तशास्रोक्त बातें सत्य है ! परन्तु सूक्ष्मता से उनका ज्ञान आज विरले लोगों में पाया जाता है । अधिकांश लोग पल्लवग्राही पांडित्य वाले होते हैं, सो उनकी भविष्यवाणी झूठी निकल जाती है, या शुभाशुभ जैसा वे फल बतलाते है, वह मिथ्या सिद्ध होता जाता है, सो यह शास्त्र का दोष नहीं, किन्तु अधूरे अध्ययन का फल है।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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