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________________ सफलता का मूलमंत्र : आस्था २७५ योगी है, इसका निर्णय करके हमें उस पर आस्था करनी चाहिए, फिर उससे चल-विचल नहीं होना चाहिए। ऐसी दृढ़प्रतीति और श्रद्धा का नाम ही भास्था है। कहा भी है-- इदमेवेदृशमेव तत्त्वं नान्यन्लेचान्यथा । इत्यकम्याऽयसाम्भोवत्सन्मार्गेऽसशयाचिः ।। अर्थात् -- तत्त्व का स्वरूप यही है, ऐसा ही है, जैसा कि जिनेन्द्र देवने कहा है। उससे विपरीत अन्य कोई वास्तविक स्वस्प नहीं है, और न अन्यथा हो सकता है । ऐसी दृढ प्रतीति का नाम ही श्रद्धा या आस्था है । जैसे तलवार की धार पर चढा पानी दृढ रहता है उससे अलग नही होता उसी प्रकार दृढ़ श्रद्धा से जिसका मन इधर-उधर नहीं होता है, उसे ही आस्था कहते हैं। यह पारमार्थिक आस्था है। लौकिक आस्था दूसरी लौकिक आस्था होती है । जैसे--सज्जन की सज्जन के ऊपर, पड़ोसी की पड़ोसी के ऊपर और मित्र की मित्र के ऊपर । कोई पुरुष सत्यवादी है, तो हमारी उस पर आस्था है- भले ही वह हमारा शत्रु ही क्यों न हो। किसी की आस्था ज्योतिपी पर होती है कि वह जो भविष्य फल कहेगा, वह सत्य होगा। किसी की आस्था वैद्य पर होती है कि उसके इलाज से मुझे अवश्य लाभ होगा। मूलदेव एक राजकुमार था। उसे दान देने मे आनन्द आता था। उसकी दान देने की प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ने लगी तो उसके पिता को-जो कि एक बड़े राज्य का स्वामी था-यह अच्छा नहीं लगा। भाई, कृपण को दाता पुरुष से, मूर्ख को विद्वान से, चोर को साहूकार से, पापी को धर्मात्मा से, दुराचारी को सदाचारी से और वेश्या या व्यभिचारिणी स्त्री को सदाचारिणी और ब्रह्मचारिणी स्त्री से ईर्ष्या होती है। इन लोगो का परस्पर मे मेल-मिलाप या प्रेम नहीं होता। हां, तो जव राजकुमार मूलदेव की अपने पिता से अनवन रहने लगी तो वह एक दिन घर छोड़कर वाहिर चला गया। चलते-चलते वह जंगल में पहुंचा । वहां पर एक साधु का आश्रम दिखाई दिया। वह थककर चूर-चूर हो रहा था, अत: उसने वही पर विश्राम करने का विचार किया। क्यूकि सूर्यास्त हो रहा था--अतः उसने उस आश्रम के साधु से निवेदन किया कि वाधाजी ! में रात भर यहा ठहर सकता हूं ? उस साधु ने कहा---याप सहर्ष ठहर सकते
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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