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________________ २६४ 'प्रवचन-सुधा दूमरी तिजोरी रखी थी--जिममें कि धर्मादा और सुकृतफंड के रुपये रत्वे रहते थे। अतः उसे खोलकर उसमें से रुपये निकाल कर बुढिया को दे दिये और वह लादी ले ली। वह बुढिया रुपये लेकर जैसे ही दुकान में बाहिर हुई कि पता नहीं किधर गायब हो गई । मुनीमजी वह लादी लेकर सेठंजी के घर पहुंचे और सेठजी से कहा-सेटजी, यह लादी मैंने बीस हजार में ले लो, क्योंकि इनकार करने पर दुकान की इज्जत जाती थी । आपके बिना पूछे एक कार्य तो यह किया और दूसरा अपराध यह किया कि सुकृतफंड की तिजोरी में से रुपये दिये, क्योंकि दुकान की तिजोरी में रुपये नहीं थे । सेठजी बोले - मुनीमजी, कोई अपराध की बात नहीं है । आपने तो दुकान को इज्जत बचाने के लिए ही इमे लिया है । और सुकृतफंड की तिजोरी से रुपया देकर लिया है, तब यह लादी अपनी नहीं है, मुकृत की ही लादी है । यह कहकर सेठजी ने सेटानीजी को देते हुए कहा- देखो, इसे भीतरी कमरे में सुरक्षित रख दो और भूल करके भी कभी इससे चटनी आदि मत पीसना । यह कहकर सेठ जी ने उम पर अपने हाथ से लिख दिया कि यह लादी सुकृत की है, इसे सुकृत के सिवाय किसी अन्य कार्य में नहीं लिया जाय ? __भाइयो, आज अपने को धर्मात्मा तो सभी कहते है, चाहे वे जैन हों, वैष्णव हों, ईसाई हों या मुसलमान हों। परन्तु उनमें ऐसे कितने लोग हैं, जो कि ऐमा विवेक और विचार रखते हों ? जिनके ऐसा विचार है और भूलकर भी सुकृत का पैसा अपने कार्य में नहीं लेते हैं, वे ही धर्मात्मा हैं, भले हो वे किसी भी जाति या धर्मवाले क्यों न हों ? किन्तु जिनके ऐसा विवेक और विचार नहीं है, भले ही वे ऊपर का दिखाऊ धर्म कितना ही क्यो न करते हों, पर उन्हें धर्मात्मा नहीं कहा जा सकता । देखो - आप लोग यहां सामायिक और प्रवचन सुनने को स्थानक में आते हैं। मामायिक करने के लिए बैठते समय आपने अपना शाल-शाला, कम्बल घड़ी आदि ओढ़ने पहिरने की कोई वस्तु उतार कर रखी और सामायिक पूरी करने के पश्चात् उसे उठाना भूलकर अपने घर चले गए। वहा जाने पर आपको याद आया कि अमुक वस्तु तो हम स्थानक में ही भूल आये है। अब आप स्थानक मे आकर देखते हैं और वह वहां पर नहीं पाते हैं, तो निश्चित हैं कि अपने में से ही कोई भाई उसे ले गया है, क्योकि स्थानक कोई चोर-उठायीगीरों का अड्डा नही है । अव उसे जो ले गया, वह तो चोर है ही और उसकी बुद्धि भ्रष्ट होगी ही.! साथ ही ऐसे चोर व्यक्ति के घर का अन्न-जल किसी भी साधु के पेट में जायगा, उमकी भी बुद्धि भ्रष्ट हो जायगी। परन्तु पहिले के लोग बड़े नीनिवान् थे ।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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