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________________ २६२ प्रवचन-सुधा जैसा अन्तर है। साधु के सावधानी रखते हुए भी हिंसा की संभावना रहती है, अतः उसे प्रतिदिन 'मिच्छामि दुवकर्ड' करना पड़ता है। भाई, वह यतना का विचार और जीव रक्षा का भाव किसके हृदय में पैदा होता है ? जिसके कि हृदय में ज्ञान का - विवेक का अंकुश है । देखो-हाथी कितना बड़ा और बलवान होता है। वह गोली और भाले के शरीर में लगने पर भी उसकी परवाह नहीं करता। परन्तु जव मस्तक पर महावत का अंकुश पड़ता है, तब चिंधाड़ने लगता है और महावत जिघर ले जाना चाहता है, उधर ही चुपचाप चला जाता है। इसी प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क पर, मन पर विवेक का अंकुश होगा, तो वह कुमार्ग पर नहीं चलेगा-कुपथगामी नहीं होगा 1 किन्तु सुपथगामी रहेगा। अंकुश भी दो प्रकार के होते हैं...- एक द्रव्य-अंकुश और दूसरा भाव-अकुश। हाथी का अंकुश द्रव्य-अंकुश है। इसीप्रकार साधु के लिए आचार्य, गुरु आदि द्रव्य-अंकुश हैं । विवेक का जाग्रत रहना भाव-अंकुश है। जिसका विवेक जागृत रहता है, उसे सदा इस बात का विचार रहता है कि यदि में अपने पद के प्रतिकूल कार्य करूँगा तो मेरा पद, धर्म और नाम कलकित होगा। मेरी जाति वदनाम होगी और सबको अपमान सहना होगा । इसप्रकार से जिसके मन के ऊपर ये दोनों ही अंकुश रहते हैं, वह व्यक्ति कभी कुमार्ग पर नहीं चलेगा, किन्तु सदा ही सुमार्ग पर चलेगा। किन्तु जिसके ऊपर ये दोनों अंकुश नहीं है, वे व्यक्ति मनमानी करते हैं। कहा भी है विन अंकुश बिगड्या घना, कपूत कुशिष्य ने कुनार । गुरु को अंकुश धार सो, सो सुधा संसार ॥ भाइयो, आप लोग अपने ही घरों में देख लो-~-अंकुश नही रहने से औरतें विगड़ जाती हैं और बाल-बच्चे आवारा हो जाते है । गुरु का अंकुश नहीं रहने से शिष्य बिगड़ जाता है । इसलिए जैसे धरके स्त्री-पुत्रादि पर पितां या संरक्षक का अंकुश होना आवश्यक है, उसी प्रकार शिष्य पर गुरु का अंकुश होना भी भावश्यक है। इससे आत्मिक लाभ तो है ही, लौकिक लाभ भी होता है और समय पर अपना भी बचाव होता है। जैसे किसी विकट समस्या के आ जाने पर पुत्र कहता है कि भाई, मैं इस बात का उत्तर पिताजी से पूछ कर दूंगा, अथवा शिष्य कहता है कि मैं गुरुजी से पूछ कर कहूंगा । इस प्रकार वे अपने उत्तरदायित्व से बच जाते हैं । और कभी-कभी तो इतना भारी लाभ हो जाता है कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इसीलिए तो कहावत है कि माटी के बढ़ेरे भी अच्छे है ।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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