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________________ मनुष्य को चार श्रेणियां २४६ संत पुरुपों की आस्था यशरूपी शरीर में होती है, इस अस्थायी पौद्गलिक शरीर में उनकी निष्ठा नहीं होती है । मुर्दार मनुष्य चौथे प्रकार के मुर्दार मनुष्य हैं । साहस-हीन, उत्माह-हीन, कायर और अकर्मण्य पुरुपों को मुर्दार कहते है । ऐसे मनुष्यो का हृदय सदा निराशा से परिपूर्ण रहता है । उनमे आत्म-विश्वास की बड़ी कमी होती है । ऐसे व्यक्ति से यदि कोई कहता है कि हाथ पर हाथ रखे क्यों बैठे हो ? कोई धन्धा क्यों नहीं करते ? तो वह कहता है कि यदि नुकसान हो गया, तो मैं क्या करूँगा? उसमे धीरता का नाम नहीं होता । किसी काम को करने का साहस नहीं होता। उनके सामने यदि कोई धर्म का या बहिन-बेटी का अपमान करता है, या उसकी इज्जत-आवरू लूटता है तो वह अकर्मण्यक और कायर बना देखता रहेगा । यदि कोई उसे मुकाविला करने के लिए ललकारता भी है तो कहता है कि मैं क्या कर सकता हूं, जो होना होगा, वह होगा । वह सदा देव पर अवलम्बित रहता है और पुरुषार्थ से दूर भागता है। इसीलिए किसी सस्कृत कवि को कहना पड़ा कि 'देवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति ।' अर्थात्-कायर पुरुप कहते हैं कि जो कुछ सुख-दुख देने वाला है, वह दैव ही है । मैं क्या कर सकता हूं। आज के समय में ऐसे मुर्दार मनुष्यों की कमी नहीं है । भाई, जो जीवन से थक गये, बूढ़े और अपाहिज हो गये है, वे यदि मुर्दारपने की बात कहे, तो ठीक भी है। किन्तु जब हम नौजवानो को यह कहते सुनते हैं कि हम क्या करे, हमे कोई सहारा देनेवाला नहीं है, तो सुनकर बड़ा दुख होता है । अरे तुम्हारे अन्दर नया खून है, हड्डियो में ताकत है और तोड-फोड करने के लिए स्फति और उत्साह है । फिर भी तुम लोग इस प्रकार से अपने ही जीवन-निर्वाह के लिए कायरता और मुर्दारपना दिखाते हो, तो आगे जीवन मे क्या सरदारपना दिखाओगे ? तुम्हें परमुखापेक्षी होने की क्या आवश्यकता है ? प्रकृति ने तुमको दो हाथ और पैर काम करने के लिए दिये हैं और मस्तिष्क विचार करने के लिए दिया है। फिर भी जब तुम अपनी ही रोटी की समस्या स्वय नहीं सुलझा सकते हो, तो दूसरो की क्या सुलझायोगे ? इन छोटे-छोटे पक्षियों को देखो- जो किसी की भी सहायता नहीं चाहते है और पुरुषार्थ से अपना चुगा स्वयं खोजते रहते है। परन्तु आज के पढ़े-लिखे और
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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