SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिसंलीनता तप २२१ आने वाले थे, वं इसके निमित्त से जल्दी आ गये और मेतार्य ने आत्मलाभ कर लिया है । अव तुम क्रोध करके क्यों कमों को बांध रहे हो ? भगवान के इन वचनों से श्रोणिक का हृदय कुछ शान्त हुआ और सोचने लगे-जब यह भगवान् के शरण में आगया है, तब मैं कर ही क्या सकता हूं। फिर भी उससे रहा नहीं गया और उसके पास जाकर बोले—अरे पापी हत्यारे, तूने ऐसा निंद्य कार्य क्यों किया? वह बोला-महाराज, आपके सोने के जवों के लिए करना पड़ा है। थेगिक ने कहा--तू आकर जवों के दाने की बात मुझ से कह देता 1 में छोड़ देता, या बनाने के लिए और सोना दिला देता । अव तूने यह साधु का वेप धारण कर लिया है, अत: मैं तुझे छोड़ देता हूं। पर देख अव इस वेप वी टेकः रखना । यदि इससे गिर गया तो चौरासी के चक्कर में अनन्त काल तक दुःख भोगेगा। वह भी भगवान के समीप अपने दोपों की आलोचना करके विधिवत् दीक्षित हो गया और साधुपने का साधन करते हुए आत्मार्थ को प्राप्त हो गया । ___भाइयो, वात संलीनता पर चल रही थी । देखो-मेतार्य मुनि ने अन्तिम समय तक कितनी प्रतिसंलीनता धारण की और अपने ध्येय से रंचमात्र भी चल-विचल नहीं हुए। गजसुकुमार ने भी सोमिल ब्राह्मण द्वारा किये गये दारुण उपसर्ग को भी किस साहस के साथ सहन करके आत्मार्थ मिद्ध किया। यह संलीनता का ही प्रभाव है कि अनेक महामुनि दारुण उपसर्गों को इस दृढता के साथ सहन कर लेते हैं--जैसे मानो उनके ऊपर कुछ हुआ नही है । इसी यात्म-संलीनता के द्वारा ही अनादिकाल के बंधे हुए कर्मों का विनाश होता है और मोक्ष प्राप्त होता है। हमारी भी भावना सदा यही रहनी चाहिए कि हमें भी ऐसी ही प्रतिसंलीनता प्राप्त हो । वि० सं० २०२७ कार्तिक शुक्ला ३ जोधपुर
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy