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________________ प्रतिसंलीनता तप २०8 भी कार्य की संलीनता प्राप्त करने के लिए बड़ी सावधानी की आवश्यकता होती है। साधना की आवश्यकता एक समय की बात है कि स्वर्ग में दो देव साथ रह रहे थे और उनमें परस्पर प्रीतिभाव भी अधिक था । उनमें से एक का आयुप्य अल्प था । जब उसकी माला मझायी और अन्तिम समय समीप आया देखा तो उसने दूसरे देच से कहा-मैं तो अब यह स्वर्ग छोड़कर मनुष्यलोक में जाने वाला हूं तू मेरा मित्र है, सो यदि मैं मनुष्य के भोगों में आसक्त हो जाऊं तो तुम मुझे सावधान करते रहना, जिससे कि मैं भोगों की कीचड़ में नही फंस पाऊ? दूसरे देव ने कहा - मैं अवश्य ही तुम्हें सचेत करने आऊंगा। आयुष्यपूर्ण होने पर वह देव चल कर राजगृह नगर में राजा के मंगी की स्त्री के गर्भ में आया । भगिन को स्वप्न आया। उसने पति से कहा । वह फल पूछने के लिए ब्राह्मण के घर पर गया और उसने स्त्री के द्वारा देखा हुआ स्वप्न कहकर उसका फल पूछा। ब्राह्मण ने कहा-भाई, तेरे एक पुण्यशाली पुत्र उत्पन्न होगा । उसने आकर के यह बात अपनी स्त्री से कही और क्रमशः गर्भकाल बीतने लगा। __इसी राजगृह नगर में एक जुगमन्दिर सेठ भी रहता था । वह अड़तालीस करोड़ स्वर्ण दीनारों का स्वामी था। उनके कोई सन्तान नहीं थी, अतः पति-पत्नी दोनों ही चिन्तित रहते थे। मंत्र, तंत्र और औपधियों के अनेक प्रयोग करने पर भी उनके कोई सन्तान उत्पन्न नहीं हुई, क्योंकि अन्तराय-कर्म का प्रबल उदय था । भाई, जव अन्तरायकर्म का क्षयोपशम होता है, तभी बाहिरी उपाय सहायक होते हैं। उद्योग करना उत्तम है और उद्योग से ही सारे काम सिद्ध होते हैं, पर तभी, जबकि भाग्य का भी उदय हो । सन्तान का अभाव पुरुष की अपेक्षा स्त्रियों को अधिक खटकता है, इसलिए जुगमन्दिर सेठ की सेठानी उम्र बढ़ने के साथ और भी अधिक चिन्तित रहने लगी। वह सोचती रहती कि पुत्र के विना मेरी यह अपार विभूति और सम्पत्ति किस काम की है ? एक दिन की बात है कि जिस भंगिन की कुक्षि मे वह स्वर्ग का देव आया था, वह जब सेठजी की जाजरू साफ करने के लिए आई तो उसने सेठानीजी को उदास मुख वैठे देखा । उसने पूछा--सेठानीजी भाज इस पर्व के दिन भी आप उदास मुख क्यो वैठी हैं ? महत्तरानी के यह पूछते ही सेठानी फवक-फवक कर रोती हुई बोली- महत्तरानीजी, मेरे से तो इन १४
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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