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________________ १९ / प्रतिसंलीनता तप प्रतिसलीनता का अर्थ है-अपने ध्येय के प्रति सम्यक् प्रकार से लीन हो जाना। यह तपस्या का एक मुख्य अंग है और कर्म-निर्जरा का प्रधान कारण है। इसके पूर्व जो अनशन, ऊनोदरी, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान और कायक्लेश ये पांच तप बतलाये हैं, इनमें लीन होने का नाम ही प्रतिसंलीनता है। साधक जब आत्म-साधना करते हुए अनशन करता है, तव वह उसमे मग्न रहता है, जब ऊनोदरी करता है, तब उसमें मग्न रहता हैं और इसी प्रकार शेष तपो को करते हुए भी वह उसमे मग्न रहता है । उक्त तपो को करते हुए यदि बड़ी से बड़ी आपत्ति आजावे को वह उसे सहर्ष सहन करता है, और मन में रत्ती भर भी विपाद नहीं लाता । ससारी जीव यदि क्रोधी है तो वह क्रोध में मग्न रहता है. मानी मान मे, मायावी मायाचार मे और लोभी व्यक्ति लोभ में मग्न रहता है । यह उनकी लीनता तो है, किन्तु प्रवल कर्मबन्ध का कारण है ! किन्तु इनके विपरीत जो क्रोध-मानादि दुर्भावों से आत्म-परिणित को हटाकर अनशनादि तपों को करते हुए आत्मा की शुद्धि करने में संलीन रहते हैं, उनकी संलीनता ही सच्ची प्रति संलीनता कहलाती है और वह कर्मों का क्षय करके मुक्ति-प्राप्ति कराती है । प्रतिसलीनता का दूसरा अर्थ शास्त्रो मे यह भी किया गया है कि आचार्य, उपाध्याय, और कुलगणी मे संलीनता । आचार्य सर्च सघ के स्वामी होते है। उनकी भक्ति में, उनकी आना पालने मे और उनके द्वारा दिये गये प्रायश्चित
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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