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________________ आत्मलक्ष्य की सिद्धि १६६ की ऐसी बकल्पित बातें सुनकर सारी शिष्य-मंडली विचार में पड़ गई कि अब क्या किया जावे ? जब आकाश ही डिग रहा है, तब उसे थोभा देने वाला कौन है ? फिर भी उन लोगो ने विनयपूर्वक विनती करते हुये कहा -- गुरु महाराज, आपने उत्तम धर्मोपदेश दे-देकर हमें दृढसम्यक्त्वी बनाया है। अब आप क्या हमारी परीक्षा करने के लिए ऐसा कह रहे हैं, अथवा सचमुच डिग रहे है ? तव आचार्य ने कहा- मैं सत्य ही कह रहा है। इस साधुपने में कप्ट करना बेकार है। यदि स्वर्ग होता तो इतने शिष्य काल करके गये हैं, उनमें से कोई तो आकर के मिलता। पर मेरे आग्रह करने पर और तो क्या, यह अन्तिम सथारा करने वाला शिष्य भी नहीं आया है। इससे मुझे निश्चय हो गया है कि स्वर्गादि कुछ नहीं है और उसके पाने की आशा से ये कष्ट सहन करना व्यर्थ है । यदि तुम लोग फिर भी साधुपना नहीं छोड़ना चाहते हो तो तुम्हारी तुम लोग जानो। परन्तु मैं तो रवाना होता है। यह कहकर सबके देखते-देखते ही आपाढाचार्य रवाना हो गये। ज्यों ही आचार्य ने उपाथय से वाहिर पैर रखा, त्यों ही उस छोटे शिष्य के जीव का जो कि मर कर देव हुआ था—आसन कम्पित हुआ । उसने अवधिज्ञान से देखा कि गुरुमहाराज मेरे निमित्त से डूब रहे है, क्योंकि मैं उनकी सेवा में नहीं पहुंचा हूं। यह मेरी भूल का दुप्परिणाम है । यह सोचता हुआ वह देव तत्काल स्वर्ग से चला और इनको विना ईर्यासमिति के लम्बे-लम्बे डग भरते हुए जाते देखकर जाना कि इनमें श्रद्धा का नाम भी नहीं रहा है अव देखू कि इनके हृदय में दया और लज्जा भी है, या नहीं ? यदि ये दोनों होंगे तो इनके पुनः सन्मार्ग पर आने की संभावना की जा सकती है ? ऐसा विचार करके उसने एक साधु का रूप बनाया और कंधे पर मछली पकड़ने का जाल डालकर जोर-जोर से चिल्लाने लगा। उसकी आवाज सुनकर आपाढाचार्य जाना भूल गये और खड़े होकर पीछे की योर देखने लगे। ज्यों ही उनकी दृष्टि उस साधु पर गई तो उससे कहने लगे-अरे मूर्ख, यह क्या किया ? साधु होकर कन्चे पर जाल रखता है ? क्या यह साधु के योग्य है ? उसने कहा मैं क्या बुरा है। ऐसा तो सव साधु करते हैं। मैं तो चौड़े और खुले मैदान में करता हूं और दूसरे लोग छिपकर करते है। गुरु ने कहा-मैं तेरा कहना मानने को तैयार नहीं हूं। तब उसने कहा--जरा सपना ध्यान तो करो ? यह सुनकर भी आपाड़ाचार्य आगे चल दिये। तब उस देव ने साधु का वेप छोड़कर सगर्भा साध्वी का भेष धारण किया और हर दुकान से सोंठ-गोंद आदि जापे की वस्तुए मांगने लगी। जब आचार्य ने उसे ऐसा करते देखा तो कहा
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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