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________________ आत्मलक्ष्य को सिद्धि १६७ जैसे नाव हलकी है, उसमें कोई छिद्र नहीं है और खेवाटिया कुशल है तो उसमें जितने भी यात्री बैठेगें, वे पार हो जायेगे । परन्तु जो नाव जर्जरित है, टूटी-फूटी और छिद्र-युक्त है, उसमे जो बैठेगा, तो डूबेगा ही। वह कभी पार नहीं पहुंच सकता । किन्तु जिसकी नाव उत्तम है और खेवटिया भी होशियार है, तो कभी भी डूबने का डर नहीं रहता है। आप लोगों को जैनधर्मरूपी नाव भी उत्तम और मजबूत मिली है और उसके सेवनहारे आचार्य लोग भी उत्तम मिले हैं । फिर आप लोग उसमे बैठकर के ससार से पार पहुंचने का प्रयत्न क्यों नहीं करते है ? इस स्वर्ण अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। सशयशोल को दुर्गति आपाड़ाचार्य पचास शिष्यों के गुरु थे, महात् विद्वान थे और आठौं सम्पदाओं से सम्पन्न थे। माता के वश को जाति कहते है, उनका मातृत्रश अत्यन्त निर्दोप था, अतः वे जातिसम्पदा से सम्पन्न थे। पिता के वश को कुल कहते हैं । उनका पितवश भी निर्मल और पवित्र था, अत वे कुलसम्पदा से भी सम्पन्न थे। वे बलसम्पदा से भी सम्पन्न थे, क्योकि उनका आत्मिकबल अद्वितीय था । वे रूपसम्पदा से भी युक्त थे, क्योंकि उनका रूप परम सुन्दर था। वे मतिसम्पदा से भी संयुक्त थे, क्योंकि वे असाधारण बुद्धिशाली थे । कोई भी-किसी प्रकार की समस्या उनके सामने यदि आ जाती तो वे उसे इस प्रकार मे सुलझाते थे कि दुनिया देखती ही रह जाती थी। वे प्रयोगसम्पदा के भी धनी थे, स्व-मत के विस्तार करने के जितने भी उपाय होते है, उन सब के विस्तार करने में - प्रयोग करने में कुशल थे। ज्ञानसम्पदा भी उनकी अद्भुत थी, जो भी प्रश्न उनमे पूछा जाता था, उसका वे तत्काल उत्तर देते थे और संग्रहसम्पदा से भी सम्पन्न थे, क्योंकि वे सदा ही उत्तम और आत्मकल्याणकारी वस्तुओ से अपना ज्ञान-भण्डार भरते रहते थे। जिस आचार्य के पास अठ सम्पदाए होती है, उनका कोइ सामना (मुकाविला) नहीं कर सकता है । और यदि कोई करता भी है तो उसे मुंह की खानी पड़ती है। हा, तो वे आपाढाचार्य उक्त आठो सम्पदाओ से सम्पन्न थे। एक बार उनके एक शिष्य ने संथारा किया । आचार्य ने उससे कहा--शिष्य, यदि त स्वर्ग में जाकर देव बने तो एक बार आ करके मुझसे अवश्य मिलना । शिष्य ने हा भर दी और वह यथासमय काल कर गया। दिन पर दिन बीतने लगे और वर्ष-दो वर्ष भी बीत गये, तव भी वह स्वर्ग से उनके पास नहीं आया ।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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