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________________ १८ आत्मलक्ष्य की सिद्धि - बन्धुओ, इस विश्व के प्रांगण में अनेक जीव आते है और जाते हैं । इसमें चतुर्गति रूप चार बड़े जंक्शन हैं, जिसमें सबसे बड़ा जक्शन मनुष्यगति का है, जिसमें संसार के कोने-कोने से अनेक रेल गाड़ियां आती हैं और जाती हैं । कोई गाड़ी दण मिनिट ठहरती है, तो कोई पन्द्रह; वीस या तीस मिनिट ठहरती है । जिसको उतरना होता है वह उतर जाता है और जिसे जाना होता है, वह चढ़ कर चला जाता है। मनुप्यगति में जन्म लेना उसी व्यक्ति का सार्थक है, जो कि अपना लक्ष्य सिद्ध करके यहा से जाता है । आत्मलक्ष्य वही व्यक्ति सिद्ध कर पाता है, जो कि प्रतिदिन यह विचार करता है कि--- कोऽहं कीदृग्गुणः क्वत्यः किंप्राप्यः किनिमित्तकः । __ मैं कौन हूं, मेरा क्या गुण है, मैं कहा से आया हूं, मुझे क्या प्राप्त करना हैं और किस निमित्त से मेरा अभीष्ट साधन होगा? इस प्रकार की विचारधारा जिसके हृदय में सदा प्रवाहित रहती है। वह व्यक्ति आत्म-हित के साधना में सदा सावधान रहता है और अपना कर्तव्य भली भांति पालन करता रहता है। कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति का हृदय सदा आनन्द से भरपूर और शान्त रहता है। किन्तु जो व्यक्ति आत्म-साधना मे तत्पर नहीं होता है वह स्वयं तो अशान्त रहता ही है, साथ ही जो भी उसके सम्पर्क में आता है, वह भी अशान्त हो जाता है। किसी प्राचीन कवि ने कहा भी है
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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