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________________ १६२ प्रवचन-सुधा भले-बुरे का ज्ञान होता । इसलिए हमें उन आचार्यों का सदा ही उपकार मानकर कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए। भगवान महावीर का निर्वाण हए आज लगभग २५०० वर्ष हो रहे हैं और उनके निर्माण के २२ वर्ष बाद ये शास्त्र लिखे गये हैं, अतः १५०० वर्षों से ज्ञान की धारा इन शास्त्रों के प्रमाद से ही वहती चली आ रही है । लेखक ध्यस्थ रहे है, अत: लिखते समय अक्षर-मात्रा की चूक सभव हैं, उसे पूर्वापर अनुसंधान से शुद्ध किया जा सकता है और उसे शुद्ध करने का ज्ञानी जनो को अधिकार भी है। परन्तु भगवान के वचनों को इधर-उधर करने का हमे कोई अधिकार नहीं है। आप रोकड़ मिलाते हैं और रोज-नामचे में कच्ची रोकड़ में जोड़ की कोई भूल मालम पढ़ती है, तो उसे सुधार देते हैं। इसीप्रकार यदि कहीं पर लेखक के दोष से कोई अशुद्धि या भूल हो गई हो, तो उसे शुद्ध किया जा सकता है, परन्तु जो नामा सही हैं, उस पर कलम चलाने का अधिकार नहीं है। यदि सही तत्त्व-निरूपण को भी छिन्न-भिन्न किया जायगा तो फिर सारी प्रामाणिकता नष्ट हो जायगी। अतः जो आगम-निबद्ध तत्त्व हैं उनको यथावत् ही अवधारण करना भगवान् के प्रति सच्ची श्रद्धा वा भक्ति प्रकट करना है और यही उनकी आना का पालन करना है । आगम में अगणित जो मनमोल रत्न विखरे पड़े हैं, हमें अपनी शक्ति के अनुसार ग्रहण कर लेना चाहिये । मनुप्य को सदा ज्ञानी की शिक्षा माननी चाहिये, अज्ञानी की नहीं । अन्यथा दु:ख उठाना पड़ता है। किसी कुम्हार के एक गधा या । वह उसके ऊपर प्रतिदिन खान से मिट्टी लादकर लाता था । एक दिन गधे ने सोचा कि यह प्रति दिन मुझे लादता भी है और डण्डे भी मारता है । इस झंझट से छूटना चाहिए। ऐसा विचार कर उसने खान पर ही मिट्टी से भरी लादी पटक दी और वहीं पड़ गया । इस पर खीज कर कुम्हार ने उसे खूब मारा और कान-यूछ काट कर वहीं पर छोड़ कर घर चला आया। गधे ने सोचा अब मेरी झझट मिट गई और स्वतंत्र हो गया हूं, अत्त. वह जंगल मे चला गया और स्वच्छन्द घूमते-फिरते और घास खाते हुए कुछ दिनों में मोटा-ताजा हो गया। एक दिन जब वह सड़क के किनारे हरी-धास खा रहा था, तभी एक बग्घी आती हुई उसे दिखी, उसमें दो घोड़े जुते हुये थे । उनको देखकर गधे ने अपना मुख ऊंचा करके कहा - - रे रे अश्वा गले बद्धा, नित्यं भारं वहन्ति कि 1 कुटिलं किं न कर्तव्य, सुखं बने घरन्ति ते ।। अरे घोड़ो, तुम लोग मेरी जैसी कुटिलता क्यों नहीं करते ? यदि कुटिलता करोगे तो तुम भी स्वतन्त्र हो जाओगे । और मेरे जैसे खा-पीकर मस्त रहोगे क्यों नित्य यह वग्घी का भार ढोते फिरते हो ?
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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