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________________ प्रवचन-सुधा मौन छोड़कर मुझ से बोलें। मुनि ने ध्यान पारा और अभयदान देते हुये बोले अभओ पत्थिवा तुभ अभयदाया भवाहि य । अणिच्चे जीव लोगम्मि कि हिसाए पसज्जसि ॥ जया सव्वं परिच्चन्ज, गंतवमवसस्स ते । अणिच्चे जीव लोगम्मि, कि रज्जम्मि पसज्जसि ॥ हे राजन्, तुझे अभय है और तू भी अभयदाता वन । इस अनिस्य जीव लोक मे तू क्यों हिंसा में आसक्त हो रहा है ? तू पराधीन है और एक दिन सव कुछ छोड़कर तुझं अवश्य चले जाना है, तब तू इस अनित्य राज्य में क्यों आसक्त हो रहा है। इस प्रकार से उन मुनि ने राजा को सम्बोधित किया और जीवन की अस्थिरता, जाति-कुटुम्बादि की असारता और कर्म-भोग की अटलता का उपदेश दिया । राजा का वैराग्य उभर आया और वह राज-पाट छोड़कर मुनि बन गया । राजा संजय की जीवन-दिशा के परिवर्तित होने के कारण ही इस अध्ययन का नाम 'संजयीय' प्रसिद्ध हुआ है। मृगापुत्र का उद्बोधन उन्नीसवें अध्ययन का नाम 'मृगापुत्रीय' है। इसमें मृगावती रानी के पुत्र के वैराग्य का चित्रण बहुत सुन्दर ढंग से किया गया है । जव मृगापुत्र युवा हए तो अनेक राजकुमारियों के साथ उनकी शादी कर दी गई। एक बार जब वे महल में अपनी पत्नियों के साथ मनोविनोद कर रहे थे तब झरोखे से उन्हें मार्ग पर आते हुए एक साधु दिखे। उनके तेजस्वी रूप को देखते हुए मृगापुत्र को जातिस्मरण हो गया और साधु बनने का भाव जागृत हुमा । उन्होने अपने माता-पिता के पास जाकर कहा सुयाणि मे पंच महब्वयाणि, नरएसु दुक्खं च तिरिक्ख जोणिसु । निविणकामो मि महष्णवाओ, अणुजाणह पन्वइस्सामि अम्मो॥ अम्मताय मए भोगा, भुत्ता विसफलोवमा । पच्छा कडुविवागा, अणुबन्ध दुहावहा ॥ हे मात-तात, हमने पांच महाव्रतों को सुना है। जो उन्हें धारण नहीं करते हैं और पाप करने में संलग्न रहते हैं उन्हें नरकों में और तिर्यच योनियों में महादु ख सहन करने पड़ते हैं। मैंने संसार के इन विषफल के सदृश कटुक वियाकवाले भोगों को अनन्त वार भोगा है। अब मैं संसार-सागर से विरक्त हो गया हूं । अब मैं प्रवजित होऊंगा, इसलिए आप मुझे अनुज्ञा दें।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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