SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचन-सुधा जाकर दीक्षित हो गया ! अन्त में उस पुरोहित-परिवार के साथ राजा-रानी भी तपस्या करते हुए मुक्त हो गये । इषुकार राजा के नाम से ही इस अध्ययन का नाम 'इपुकाठीय' प्रसिद्ध हुआ है । ___ पन्द्रहवां 'सभिक्षुक' अध्ययन है । इसमें बतलाया गया है कि भिक्षु (साधु) वह है जो धर्म को स्वीकार कर काम-वासना का छेदन करता हैं; रात्रि में भोजन और विहार नहीं करता है, परीषहों को जीतता है, आत्मा को सदा संवृत रखता है, हर्ष और विपाद से दूर रहता है, कुतूहलों से दूर रहता है, छिन्न, स्वर, भौम, अन्तरिक्ष, स्वप्न, लक्षण दंड, वास्तु विद्या, अंग विकार आदि सामुद्रिक विद्या का उपयोग नहीं करता है, वमन, विरेचन और घूमने आदि का प्रयोग नहीं करता है, जो लाभ-अलाभ में समभावी रहता है, देव, मनुप्य और तिर्यक्-कृत उपसर्गों को शान्ति से निर्भय होकर सहन करता है, जो सवको अपने समान समझता है और जो राग-द्वीप से रहति है, वही भिक्षु है। ब्रह्मचर्य को सुरक्षा सोलहवें अध्ययन का नाम ब्रह्मचर्य-समाधिस्थान है। इसमें ब्रह्मचर्य की साधना के लिए अति आवश्यक दश स्थानों का वर्णन किया गया है.--१निर्गन्य साघु स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त स्थान पर शयन और आसन न करे । २ स्त्रियों के बीच में बैठकर कथा न करे। ३ स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे। ४ स्त्रियों के सुन्दर अंगों को न देखे। ५ स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, विलास और विलाप आदि को न सुने । ६ पूर्व में भोगे हुए भोगों का स्मरण न करे । ७ गरिष्ठ रसों वाला आहार न करे । ८ मात्रा से अधिक न खावे-पीवे । ६ शरीर का शृंगार न करे। और १० मनोज्ञ रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द में आसक्त न हो । अन्त में कहा गया है कि देव दाणय गधन्वा, जक्ख रक्ख सकिन्नरा। चभयारिं नमसंति, दुक्करं जे करन्ति तं ॥ अर्थात् जो इस दुष्कर ब्रह्मचर्य का उक्त प्रकार से पालन करते हैं, उस ब्रह्मचारी साधु को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, और किन्नर नमस्कार करते हैं। मन्त मे कहा गया हैं कि--- एस धम्मे धुवे निमए, सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिज्झन्ति चाणेण, सिज्झिस्संति तहापरे ।।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy