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________________ वाणी का विवेक ९७ है, फिर अनवसर तो हंसना ही नहीं चाहिए । पूर्वजों ने कहा है कि 'रोग की जड़ खांसी और लड़ाई की जड़ हांसी ।' विश्व में अनेक लड़ाईयाँ केवल हंसी के ही कारण से हुई हैं । यदि कोई पुरुप शान्ति में बैठा है और यदि उससे कोई हंसी-मजाक भी करे तो वह सहन कर लेता है। किन्तु यदि किसी की प्रकृति उग्र है, अथवा कहीं बाहिर से किसी पर चिढा हुआ आया है और उस समय यदि कोई उससे हंसी-मजाक कर दे, तो लड़ाई हुए विना नहीं रहेगी । इसलिये मनुष्य को सदा बोलने में सावधानी रखनी चाहिए। और अशुद्ध भापा का कभी प्रयोग नहीं करना चाहिए। वोलने में सदा मीठे और कर्ण-प्रिय वचन ही बोलना चाहिए। कहा भी है-- प्रियवाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः । तस्मात् प्रियं च वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ।। भाई, प्रिय वचनों के बोलने से सभी प्राणी सन्तुष्ट होते है । अरे, मनुष्यों की तो कहे कौन, पशु-पक्षी और हिंसक जानवर भी मीठे वचन सुनकर प्रसन्न होते हैं और अपनी क्रूरता छोड़ देते हैं । इसलिए मनुष्य को सदा प्रिय वचन ही बोलना चाहिए । नीतिकार कहते हैं कि वचन में दरिद्रता क्यों करना ? क्योंकि मीठे वचन बोलने में पूजी खर्च नही होती है और कटक बोलने में कोई धन की वचत नहीं होती है । अरे भाई, अन्य बातों में भले ही पैसे की कंजूसी करो, पर बोलने में तो बचनों की कंजूसी नहीं करनी चाहिए। __ भगवान ने सन्ध्याकाल में मौन रखने और सामायिक प्रतिक्रमण आदि करने का जो विधान किया है, उसमें एक रहस्य भी है । वह यह कि प्रातः, मध्याह्न, सायंकाल और अर्धरात्रि के समय इन्द्र के चारों लोकपाल और दशों दिग्पाल अपने-अपने क्षेत्र की रक्षा करने के लिए घूमते रहते हैं। उस समय यदि कोई पुरुप किसी के लिए अन्धा, लंगड़ा आदि निकृष्ट और निन्द्य वचन का प्रयोग कर देवे और वे उनके सुनने में आजायें -- तो बोलनेवाला पुरुप वैसा ही हो जाता है। इसीलिए जन सूत्रों में त्रिकाल सन्ध्या करने का विधान किया गया है । प्रायः देखा जाता है कि जन्म देनेवाली माता भी अपनी प्यारी बच्ची से 'राड' कह देती है। भले ही वह प्रेम से कहती हो। पर ऐसे वचन नही
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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