SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वाणी,का विवेक ६५ उन्होने कहा महाराज, मैं निवेदन करूंगा। इसके बाद वे गुरु महाराज के पास गये और कहा—महराज, आज यहां के राजा ने ऐसी बात कही है, सो मैंने कोई उत्तर नहीं दिया है और ऐसी बात पर मैं कहता भी क्या ? तव गुरु महाराज वोले-अरे क्या तुझे भगवान की वाणी पर विश्वास नहीं है ? जिसके द्वारा असंख्य प्राणियों के असंख्यभवों के पाप भी नष्ट हो जाते हैं तो उसके द्वारा ठूठ के फल लगना क्या कठिन वात है ? दीवान जी बोलेमहाराज, कही ऐसा न हो कि आपका और मेरा डेरा ही यहां से उठ जाय ! क्योंकि यह राजा की बात है । गुरु महाराज ने कहा-~-तू कोई चिन्ता मत कर सब ठीक होगा। तत्पश्चात दूसरे दिन व्याख्यान के समय भागवत वांचने वाले व्यासजी समीप में आकर बैठे और पूछा कि महाराज, भगवती में ऐसी क्या बात है जो भागवत से बढ़कर है। भागवत की वचनावली और भगवती की वचनावली इन दोनों में से कौन सी अच्छी है ? तव गुरु महाराज ने कहा-मैं किसी भी ग्रन्थ की निन्दा नहीं करता हूं। फिर भी भगवती भगवती ही है । यह सुनकर व्यासजी बोले—क्या ठूठे के भी उनके प्रभाव से फल लग जायेगे ? आचार्य महाराज ने कहा कि लगने वाले होंगे तो लग जायेंगे। दूसरे दिन गुरु महाराज के व्याख्यान में राजा साहब जब पहुंचे, तव भगवतीजी का प्रवचन हो रहा था। सुनकर उन्होंने सोचा कि इसमें तो भागवत से भिन्न ही विपयों का वर्णन है। अतः उन्होने उपाश्रय के बाहिर धूल मे एक लकड़ी गड़वा दी और चार आदमी उसकी देख-रेख के लिए नियुक्त कर दिये । जैसे ही यह बात जैन समाज को ज्ञात हुई तो बड़ी खलमच गयी कि कही गुरु महाराज की बात न चली जाय । संयोग से उसी दिन पानी बरसा और तीसरे दि ढूंठ मे से अंकुर निकल आये। पहरेदारों में से एक ने जाकर राजा से कहा--महाराज, लकड़ी में से अंकुर निकल आये है । राजा साहब ने स्वयं जाकर देखा तो बात को सत्य पाया । इधर व्याख्यान में भगवती सूत्र का प्रवचन चलता रहा और उधर वह डंडा वड़ा और हराभरा होता गया । तीन वर्ष में भगवतीजी का प्रवचन समाप्त हुआ। इस बीच वहां पर अनेक बड़े सन्तों का भी पदार्पण हा । लोगों ने आश्चर्य के साथ देखा कि तीन वर्ष के पूरे होते ही उस टूठ में आम भी लग गये हैं। जैसे ही लीबड़ी-नरेश को यह पता लगा तो वे आकर गुरु महाराज के चरणों में नत मस्तक हए । जैनधर्म की बड़ी भारी प्रभावना हुई। उस समय से आज तक लीवड़ी, मोरवी और लखतर-दरवार जैनधर्म पर श्रद्धा रखते है और जैन सन्तों का समुचित आदर करते हैं ।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy