SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ प्रवनन-मुधा चार-पाच दिन निकल गये । एक दिन जब स्थान के किवाद ले नहीं रे~~ प्रात काल चार-मादे चार बजे एक भाई पर बाहिर मामायिक करने को वैठ गये । मन्त भीतर पाटिये पर मो रहे थे। जर वे जागे, तो बोलते है-- 'अरी, तू पहा चली गई ? (तू कठे चली गई ?) यह शब्द सुनते ही सामायिक करनेवाला भाई सोचता है-अरे, महाराज यह क्या बोल रहे हैं ? हम तो इन्हे क्रियावान् समझ रहे थे। पर ये महाराज क्या बोल रहे है ? इनके पास कौन है ? उम भाई के हृदय पर उक्त वचनो का बहुत गहरा असर पड़ा । वह सामायिक करके वहा मे उठा और उसने दूसगे से जाकर कहा-महाराज तो 'जाणवा जोगा हैं' वापी कुछ नहीं है । योडी देर में यह बात चागे और फैल गई। और धावक लोग सबेर ग्यानक में सामायिक करने को नहीं आये। वे सन्त प्रात काल का प्रतिलेखन करके पानी के निए निकले । उन्होने सामने मिलने वालो से कहा-श्रावकजी, याज मामायिक करने को भी नही माये ? पर लोगो ने न कुछ उत्तर ही दिया और न हाथ ही जोडे । महागज यह देखकर वड चकित हुए कि रात भर में ही यह क्ण रचना हो गई हैं ? वे धोवन लेकर और बाहिर से निवट जब रथानक मे आये तो लोगो से फिर पूछा कि भाई, क्या बात है ? लोगो ने उत्तर दिया महाराज, पूजा वेप को नही होती, किन्तु गुणो की होती है । तब उन्होंने पूछा- कि आप लोगो ने मेरे मे क्या कमी देखी है २ लोगो ने कहा-महाराज, कमी देखी है, तभी तो यह वात है । कुछ देर के बाद पाच सात धावका लोग उक्त बात का निर्णय करने के लिए आये। उन लोगो ने भी बन्दना नहीं की और आकर बैठ गये। तव महाराज ने उन लोगो से पूछा कि क्या बात है ? उन्होंने कहा -महाराज, सवेरे उठते समय क्या बोल रहे थे ? 'अरी, रात को में कठे गई ? महाराज ने कहा भाई, पूजनी थी और वह कही पड गई थी। पूजनी स्त्री लिंग शब्द है, उसके लिए मैंने कहा--'अरी थे कठे गई'। सब लोग सुनकर हस पडे और क्षमा-याचना करके अपने-अपने घर चले गये। भाई, यह भाषा का प्रयोग ठीक नहीं करने का उदारहण है। जिनको बोलने का विवेक नही होला, वे समय पर इस प्रकार अपमानित होते हैं। किन्तु जिन को भापा बोलने का विवेक होता है, अनेक प्रकार के पाप और कलह आदि से बचे रहते हैं। वचन की शुद्धि एक बहुत बडी बात है। इसलिए मनुष्य को वचनो के विपय मे सदा सावधानी बरतनी चाहिए। क्योकि छह बातो से मनुष्य का मान-सन्मान घटता है । कहा है वालसखित्वमकारणहास्यं, स्त्रीषु विवादमसज्जनसेवा । गर्दभयानमसंस्कृतवाणी पट्सुनरो लघुतामुपयाति ॥
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy