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________________ १७० श्रीमद्वीर विजयोपाध्याय कृत- नसें । मेरी नाद बजमाया है । तन मन धनसें योच्छव करके। संघ सकल हरखाया है ॥ दे० ॥ ६ ॥ सपरिवारे विजय कमलसूरि । चतुरमास जब आया है । वीकानेर में प्रोच्व महोच्छव । अधिक अधिक फलकाया है ॥ दे० ॥ ७ ॥ योगणिसें समसव यशो सुदकी । पूर्णमासी दिन आया है । वीरविजय कहे प्रभु दरिशणसें । तम आनंद पाया है ॥ दे० ॥ ८ ॥ प्रोसिया नगरी श्रीवीर जिन स्तवन । ॥ ए अरजी मोरी सैयां, ए देशी ॥ महावीरजी मुजरो लीजे । सेवककुं शरणा दीजे ॥ माहा० ॥ कणी ॥ तुं निष्कारण उपगारी | चंदनबालाकुं तारी । ऐसी नजर प्रभु कीजे । सेवककुं शरणा दीजे ॥ १ ॥ चंमको सियो करमसें जारी । की यो स्वर्ग तो अधिकारी । युं बांह पककर लीजे ॥ सेव० ॥ २ ॥ संगमपें करुणा कीनी । उपसर्ग में दृष्टी न दीनी । प्रभु तारिफ केती कीजे ॥ सेव० ॥ ३ ॥ तुं ओसिया मंगन स्वामी । पुन्ये प्रभु दरिशण पामी । कहे वीरविजय संग लीजे | सेवककुं शरणा दीजे ॥ ४ ॥
SR No.010687
Book TitleAtmanand Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherBabu Saremal Surana
Publication Year1917
Total Pages311
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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