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________________ ७८ उत्तराध्ययन इस अनन्त संसृति के लम्बे पथ मे पड़े हुए है सर्व। सभी दिशाए देख चले मुनि अप्रमत्त हो रहे निगर्व ।।१२।। श्रमण, ऊर्ध्व-लक्षी, न विषय-सुख की आकाक्षा करे कही। पूर्व कर्म क्षय करने हेतु देह को धारण करे सही ॥१३॥ हो समयज्ञ भूमि पर विचरे, कर्म हेतुप्रो को ढाए । आवश्यक मात्रा मे सहजोत्पन्न प्राप्त भोजन खाए ॥१४॥ __ लेप-मात्र भी अपने पास न कभी करे सग्रह मुनिवर । पक्षी ज्यो निरपेक्ष पात्र ले, भिक्षा-हित जाए घर-घर ॥१५॥ लज्जा, शील, एषणा युत हो गॉवो मे अनियत विचरे ।। प्रमादियो से अप्रमत्त रहे अशन-एषणा करे ॥१६॥ __ भगवत् अर्हद ज्ञात-पुत्र वैशालिक द्वारा है आख्यात । जो कि अनुत्तर ज्ञान व दर्शन धारी व्याख्याता विख्यात ॥१७॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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