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________________ ६८ उत्तराध्ययन भोजन बन जाने पर गहि-सदनो मे करे एषणा संत। थोड़ा मिलने या कि न मिलने पर अनुताप न करे महन्त ॥३६॥ आज न भिक्षा मुझे मिली पर सभव है कल को मिल जाए। जो यो सोचे उसे अलाभ सताता नहीं कही वह जाए ॥४०॥ रोगोत्पन्न वेदना पीडित होने पर न बने मुनि दोन । प्रज्ञा को स्थिर रखे प्राप्त दुःख सहन करे हो समता-लोन ॥४१॥ आत्म-गवेषक समाधिस्थ समझे न चिकित्सा को अच्छा। __ करे, कराये नही चिकित्सा यही श्रमणता है सच्चा ॥४२।। रूक्ष गात्र व अचेलक सयत और तपस्वी के जीवन मे। तृण पर सोने से होती है चुभन-व्यथा उस मुनि के तन मे ॥४३॥ अति आतप पड़ने पर अतुल वेदना हो जाती यो जान। फिर भी वस्त्र न धारे तन पर तृण पीड़ित वह साधु महान ॥४४॥ ग्रीष्म-ताप से तप्त तथा प्रस्वेद रजो से पकिल गात्र । है फिर भी मेधावी सुख-हित नही विलाप करे तिल मात्र ॥४५।। आर्य निर्जरापेक्षी धर्म अनुत्तर पाकर वहन करे । देहनाश तक तन पर स्वेद-जनित परिषह को सहन करे ।।४६।। अभिवादन सत्कार निमत्रण का सेवन जो करते नृप से। उनकी इच्छा न करे, धन्य न माने उनको मुनिवर मन से ॥४७॥ अज्ञातैषी, अल्प-कषाय, अलोलुप, अल्प-इच्छु, धीमान् । रस-मूच्छित न बने न करे अनुताप देख पर का सम्मान ॥४८॥ पूर्वाजित अज्ञान फलद कर्मों के कारण मैं उत्तर । देना नही. जानता किस ही के कुछ पूछे जाने पर ।।४।। कृत-अज्ञान फलद ये कर्म उदय मे आते पकने पर। . कर्म-विपाक जान यो अपने को आश्वासन दे मुनिवर ॥५०॥ मिथुन-विरति, इन्द्रिय-मन-दमन, निरर्थक मेरे व्रत-सघात । - क्योकि धर्म शुभकर या अघकर यह न जानता मैं साक्षात ॥५१॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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