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________________ म० १, : विनयश्रुत मुनि सावध, निरर्थक, मार्मिक वचन न कहे पूछने पर। बिना प्रयोजन स्व-पर उभय के लिए न बोले जीवन-भर ॥२५॥ स्मर व अगार, संधियों पर स्थित अथवा राजपथ पर भी। नही अकेली स्त्री सह ठहरे नही बात भी करे कभी ॥२६॥ मदु कठोर वचनों से गुरु जो सीख मुझे देते हरबार ।' मेरे हित के लिए जान यों करे यत्नपूर्वक स्वीकार ॥२७॥ मृदु, कट-वचन युक्त दुष्कृत नाशक शिक्षा को भी सुनकर । ' उसे प्राज्ञ हित रूप मानता करता द्वेष असाधक नर ॥२८॥ अभय, विज्ञजन, कठोर शिक्षा को भी निज हितकर गिनता। - क्षमा, शुद्धिकर अनुशासन मूढों के द्वेष-हेतु बनता ॥२६॥ मुनि अनुच्च, स्थिर, अकम्प आसन पर बैठे अचपल बनकर। ' ' बिना प्रयोजन न उठे स्वल्प बार कारणवश उठे प्रवर ॥३०॥ जाए मुनि भिक्षार्थ समय पर वापिस पाए स्व समय पर । तज कर असमय को फिर समयोचित नित कार्य करे गुणधर॥३१॥ नही पक्ति मे खडा रहे दत्तेषण रक्त रहे मुनिवर।" " कर प्रतिरूप-गवेषणं परिमित खाये यथा समय धृति-धर ॥३२॥ अधिक दूर अति निकट न ठहरे भिक्षु व दाता के सम्मुख भी। । । - एकाकी ठहरे अंशनार्थ, न जाए उसको लाँघ कभी भी॥३३॥ ऊँचे से नीचे या अति दूर निकट "से भी न ग्रहे। पर-कृत प्राशुक प्रशन ग्रहे संयत सयम को सतत वहे ॥३४॥ प्राण, बीज से रहित तथा सवृत प्रतिछन्न उपाश्रय पर।. . यतनापूर्वक साधार्मिक सह खाये न गिराए भू पर ॥३५॥ किया, पकाया, काटा अच्छा घृत यह अच्छा हुआ मरा । अच्छा रस, अति प्रिय यह है, यो मुनि सावद्य न कहे गिरा ॥३६॥ सीख सुज्ञ को देते गुरु खुश होते ज्यो वर हय वाहक । सीख अज्ञ को देते क्लान्त बने ज्यो दुष्ट अश्व वाहक ॥३७॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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