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________________ दूसरी चूलिका विविक्तचर्या जिनवर-कथित चूलिका श्रुत को यहाँ कहूंगा मैं स्फुटतर । पुण्यवान नर हो जाते धर्मोत्साहित जिसको सुनकर ॥१॥ अनुस्रोतगामी बहुजन पर प्रतिस्रोत है जिसका लक्ष्य । प्रतिस्रोत मे ही आत्मा को ले जाए मोक्षार्थी दक्ष ॥२॥ अनुस्रोत सुख माने जंग, आश्रय' प्रतिस्रोत विज्ञ का है। ' अनुस्रोत ससार तथा प्रतिस्रोत उतार उसी का है ॥३॥ अत चरित्र-पराक्रम सवर-बहुल, समाहित मुनि जन के। लिए यहाँ द्रष्टव्य नियम गुणचर्यादिक जो है उनके ॥४॥ समुदानिक चर्या अज्ञात उंछ एकान्त व अगृह-निवास । कलह-त्याग, अल्पोपधि, सुन्दरऋषिजनविहारचर्या खास ॥५॥ जनाऽऽकीर्ण, अवमान भोज तज, हृत' उत्सन्न दृष्ट जल-भक्त। ले संसृष्ट-करो से मुनि तज्जात लिप्त हो तो विधियुक्त ॥६॥ मद्य-मास-त्यागी अमत्सरी पुनः पुनः रस त्याग करे। . वार-बार कायोत्सर्गी स्वाध्याय-योग' मे यत्ल करे ॥७॥ ये शय्यादि मुझे ही देना यो न गृही को मुनि बाँधे। ग्राम नगर कुल देश कही भी ममता भाव नही साँधे ॥८॥ गृहि-शुश्रूषा अभिवादन वन्दन-पूजन न करे मुनिवर । असक्लिष्ट जन साथ बसे, ज्यो हो न चरित्र-हानि तिल-भर ॥६॥ समगुण अथवा अधिक गुणी मुनि निपुण सहायक मिले न अब । काम-विरत सब पाप-रहित एकाकी गण मे विचरे तब ॥१०॥ १ इन्द्रिय-विषय। २. बाकीर्ण और प्रवमान नामक भोज । ३ प्राय दृष्ट स्थान से लाया हुआ। ४ दावा पो वस्तु दे रहा है उसी से ससृष्ट। ५ स्वाध्याय के लिये विहित तपस्या ।
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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