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________________ रंति-वाक्या (प्र० चू०) भोगो के खातिर अनार्य जब विशद धर्म को तर्जता है। , ___ अज्ञ, भोग-मूच्छित भविष्य का बिल्कुल सोच न करता है ॥१२॥ भूमि पतित ज्यों इन्द्र बाद मे पश्चात्ताप सतत करता। 'त्यो अवधावित सर्व-धर्म-परिभ्रष्ट हुअा मुनि दुख धरता ॥१३॥ पहले वन्दनीय होता पीछे अवन्द्य जब वह होता। ___ स्थानच्युत सुर की नाईं वह सदा बाद में हैं रोता ॥१४॥ __ जो पहले पूजित होता फिर वही अपूजित यदि बनता।। । “राज्य-भ्रष्ट नृप को नाईं अनुताप बाद मे वह करता ॥१५॥ जो पहले मानित होता यदि वही अमानित हो जाता। क्षुद्र ग्राम-प्रवरुद्ध सेठ ज्यो, पीछे से वह पछताता ।।१६।। यौवन के जाने पर जब वह जरा-ग्रस्त हो जाता है। काटे को विनिगलने वाले मत्स्य भाँति पछताता है ॥१७॥ कुटुम्ब की दुश्चिन्तामों से प्रतिहत जब वह हो जाता। बन्धन-बद्ध मतंग भांति फिर पीछे से है पछताता ॥१८॥ पुत्र-स्त्री परिकीर्ण, मोह-प्रवाह व्याप्त जब हो जाता। पंक-निमग्न मतङ्ग भांति वह पीछे से है पछताता ॥१९॥ जिनोपदिष्ट श्रमणता मे यदि रमण आज तक कर पाता। तो मैं भावितात्म, बहुश्रुत अब तक गणि-पद भी पा जाता ॥२०॥ सयम-रत मुनि का सयम है देवलोक सम सुखदायी। और अरत के लिए वही फिर महा नरक सम दुखदायी ॥२१॥ सयम-रत मुनिजन को जग मे सुख उत्तम अमरोपम जान । दु.ख अरत को नरकतुल्य, अत. एव चरित-रत हो धीमान ॥२२॥ विध्यापित यज्ञाग्नि व जहरी अहि अदष्ट्र ज्यो तेजविहीन । पराभूत होता त्यो निम्न जनो से धर्म-भ्रष्ट, अघलीन ॥२३॥ भग्न-व्रत धर्मश्च्युत मुनि का यहाँ कुनाम व अपयश हो। निम्न जनो से भी निन्दित हो मिले अधम गति उसे अहो ॥२४॥ तीव्र गृद्धि से भोग भोगकर प्रचुर असयम सेवन कर। दुखद अनिष्ट कुगति मे जाता, जहाँ बोधि फिर है दुष्करना२५॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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