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________________ अ०६ : विनय-समाधि (तृ० उ०) गुण से साधु, असाधु अगुण से ले मुनि गुण तज अवगुण ही। जान आत्म से आत्मा को सम राग-द्वेष, हो पज्य वही ॥११॥ बाल वृद्ध स्त्री पुरुष साधु या गृहि निन्दा न करे कब ही। क्रोध मान को जो तजता है होता जग मे पूज्य वही ॥१२॥ तात सुता को त्यों मानित गुरु दे शिष्यो को मान सही। मान्य जितेन्द्रिय तप ऋत-रत का मान करे जो वही ॥१३॥ गुणसागर गरु सदुपदेश सुनकर मेधावी प्रतिपल ही। पंच रक्त व त्रिगुप्त कषायहीन हो विचरे पूज्य वही ॥१४॥ जिनमत निपुण व विनय-कुशल सेवा गुरु की कर सतत प्रवर । पूर्व रजोमल क्षय कर भास्वर अतुल सुगति पाता मुनिवर ॥१५॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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