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________________ नवा अध्ययन विनय-समाधि (पहला उद्देशक) मान-क्रोध-माया-प्रमादवश सीखे गुरु से जो. न विनय । ___ होता वही अभूति' हेतु ज्यो वेणु वेण-फल से हो क्षय ॥१॥ मन्द, बाल अल्पश्रुत जान सुगुरु उपदेश वितथ दिल धर। गुरु की अवगणना जो करते वे पाशातन करते नर ॥२॥ कई प्रकृति से-मद वृद्ध हो, बालक श्रुतमति से गहरे। पर उन आचारी गुणियो की निन्दा शिखिवत् भस्म करे॥३॥ ज्यो अहि को लघु समझ छेडना बडा अहितकर होता है। त्यो गुरु-निन्दक मन्द जाति-पथ मे खाता फिर गोता है ॥४॥ आशीविष हो रुष्ट, मृत्यु से बढकर क्या कर सकता है ? पर हो सुगुरु रुष्ट तो बोधि तथा न मोक्ष वर सकता है।।५।। ज्यो प्रज्वलित वह्नि पर चलना, या आशीविष का कोपन । ___जोवनार्थ विष-भक्षण त्यो ही समझो गुरु की आशातन ॥६॥ पावक दहन करे न कदाचित्, अहि भी कुपित नही खाए। विष से मृत्यु न हो फिर भी गुरु-निन्दक मोक्ष नही पाए ॥७॥ ज्यो सिर से गिरि का भेदन या सुप्त सिंह का प्रतिबोधन। शक्ति अन पर चोट मारना, त्यो सद्गुरु की आशातन ॥८॥ सिर से हो गिरि-भेद कदाचित् प्रकुपित सिंह नही खाए। शक्ति अग्र न करे क्षत फिर भी गुरु-निन्दक मोक्ष न पाए ॥६॥ १. विनाश का.कारण । २ बोस । ३. संसार। ४ भामे की नोक ।
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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