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________________ अ० ८ : आचार - प्रणिधि बिना पूछे न बोले- या बोलते के बीच भी । पृष्ठमास' तजे तथा माया मृषा छोड़े सभी ॥ ४६ ॥ अपर नर भट कुपित हो, अप्रीति हो जिससे तथा 1, は 1 आत्मवान मुनि असदिग्ध, मित, दृष्ट, व्यक्त, प्रतिपूर्ण, वचन । परिचित, वाचालतारहित भयरहित गिरा बोले शुभ मन ॥ ४८ ॥ ر * दृष्टिवादाऽभिज्ञ मुनि, आचार-प्रज्ञप्तिधर भी । 1 अहितकर ऐसी गिरा बोले न मुख से सर्वथा ॥ ४७ ॥ F " 1 मन्त्र, स्वप्न, निमित्त या नक्षत्र, औषधि, योग को । १. चुबली । वचन मे हो स्खलिता तो उपहास मुनि न करे कभी ॥४६॥ ४१ सदन जो उच्चार भू सपन्न स्त्री-पशु रहित हो । et प्राण-वध के स्थान लख मुनि बताए न गृहस्थ को ॥ ५० ॥ चारु-लपित, कटाक्ष, अगोपाङ्ग या संस्थान है । ग्रहे शयनासन तथाविध अन्यहित जो विहित हो ॥ ५१ ॥ नारिजन से कथादिक एकात मे न करे कही । 1 गृही - सस्तव तजे मुनि - सस्तव सदैव करे सही || ५२ || सदा कुर्कट- पोत को मार्जार से भय है यथा । नारि-तन से ब्रह्मचारी को वही भय है तथा ॥ ५३ ॥ चित्रिता व अलंकृता स्त्री को न देखे ध्यान धर । दृष्टि को भट खीच ले जैसे कि रवि को देखकर || ५४ || हाथ पग फिर कान नाक - विहीन नारी हो कदा । शतायुष्या - सग को भी तजे ब्रह्म व्रती सदा ॥५५ ॥ विभषा, ससर्ग स्त्री का सरस भोजन जान लो । श्रात्म-शोधक के लिए ये ताल-पुट विष मान लो ॥ ५६ ॥ स्त्रियों के देखे न ये सब काम-वर्धक स्थान हैं ॥५७॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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