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________________ १४ दशवकालिक अनुत्तर उत्कृष्ट संवर-धर्म अपनाता - यदा। ज्ञान-आवारक निरन्तर कर्म-रज धुनता तदा ॥१२२।। ज्ञान-आवारक निरन्तर कर्म-रज धुनता यदा। सर्वगामी ज्ञान दर्शन प्राप्त करता है तदा ॥१२३॥ -सर्वगामी ज्ञान दर्शन प्राप्त करता है यदा। जान लोकालोक लेता केवली जिनवर तदा ॥१२४।। _ 'जान लोकालोक लेता केवली जिनवर यदा । रोक करके योग, पाता, दशा शैलेशी तदा ॥१२५।। रोक करके योग, पाता दशा शैलेशी यदा । , कर्म-क्षय कर रज-रहित बन सिद्धि पाता है तदा ।।१२६।। कर्म-क्षय कर रज-रहित बन ‘सिद्धि पाता है यदा। . लोकगीर्ष स्थित व शाश्वत सिद्ध होता है तदा ।।१२७॥ सुख-ग्रास्वादक सुख-पाकुल' बहु शयन जो कि करता यति है। प्रक्षालन मे जो प्रयत्न है दुर्लभ उसको सद्गति है ।।१२८॥ तप-गुण-प्रमुख सरल मति जो मुनि क्षमा व सयम मे रत है। जित्-परीषह जो है मुनि उसकी सुलभ कही सद्गति नित है ॥१२६।। [पीछे से चलकर भी अमर-भवन तक शीघ्र पहुँच पाते। .. : - जो तप संयम क्षमा शील कों बडे प्रेम से अपनाते।।] *यह छ.जीवनिकाय सम्यकदृष्टि मुनि नित साधता। - प्राप्त दुर्लभ श्रमणता को कर्मणा न विराधता ॥१३०॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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