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________________ अ० ३६ . जीवाजीव-विभक्ति २०७ प्रथम एक-खुर फिर दो-खुर फिर गडी-पद व सनख-पद जान । 'हय आदिक, गो-महिषादिक, गज आदिक, सिहादिक पहचान।।१८०॥ भुज-परिसर्प व उर-परिसर्प उभय ये परिसरों के भेद । गोहादिक, सर्पादिक फिर इन दोनो के है विविध प्रभेद ॥१८१॥ वे सर्वत्र न होते, लोक एक भाग स्थित है मतिमान । काल-विभाग चतुर्विध उनका यहाँ कहूँगा अब पहचान ॥१८२॥ सतत प्रवाह अपेक्षा से वे यहाँ अनादि अनन्त रहे । स्थिति सापेक्षतया वे स्थलचर जीव सादि फिर सान्त कहे ।।१८३॥ स्थलचर की आयु-स्थिति जघन्यत है अन्तर्मुहुर्त मान । स्थिति उत्कृष्टतया उनकी पहचानो तीन पल्य परिमाण ॥१८४।। स्थलचर की काय-स्थिति जघन्यत है अन्तर्मुहुर्त मान । तीन पल्य फिर पृथवत्व कोटि पूर्व ज्यादा उत्कृष्ट विधान ॥१८॥ जघन्य अन्तर्मुहूर्त है उत्कृष्ट अनन्त काल परिमाण । स्थलचर जीवो का फिर वही जन्म लेने का अन्तर जान ।।१८६।। वर्ण, गध फिर रस, स्पर्श, सस्थान अपेक्षा से पहचान । उनके फिर यो भेद हजारों होते है समझो मतिमान । ॥१८७॥ खेचर पक्षी चार प्रकार कहे हैं जो कि यहाँ वोधव्य । चर्म, रोम पक्षी, समुद्र पक्षी व वितत पक्षी ज्ञातव्य ॥१८८।। वे सर्वत्र न व्याप्त व लोक एक देश स्थित हैं खेचर । काल-विभाग चतुर्विध उनका यहाँ कहूँगा अब स्फुटतर ॥१८६॥ सतत प्रवाह अपेक्षा से वे यहाँ अनादि अनन्त कहे। स्थिति सापेक्षतया वे खेचर सादि सान्त फिर स्पष्ट रहे ।।१६०॥ खेचर की श्रायु-स्थिति जघन्यत है अन्तर्मुहूर्त मान । अधिकाधिक स्थिति पल्योपम के असंख्यातवे भाग प्रमाण ॥१६१॥ जघन्य अन्तर्मुहुर्त उत्कृष्ट खेचर काय-स्थिति जान । पृथक्त्व कोटि पूर्व ज्यादा हैं पल्य असंख्य भाग परिमाण ॥१९२॥ जघन्य अन्तर्मुहुर्त है: उ,कृष्ट अनन्त काल परिमाण । ' खेचर जीवो का फिर वही जन्म लेने का अन्तर जान ॥१६३॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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