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________________ १८१ अ० ३२ : प्रमाद स्थान गंध - अतृप्त, सुगंध ग्रहण में रहता गृद्ध न होता तुष्ट । अतुष्टि दोष दुखी पर वस्तु चुराता है वह लोभांविष्ट ।। ५५ ।। गधग्रहण मे प्रतृप्त, तृष्णाऽभिभूत हो वह चोरी करता । लोभ दोष से झूठ-कपट बढता, फिर दुख से छूट न सकता ॥ ५६ ॥ झूठ बोलते समय व पहले पीछे होता दुखी दुरन्त । त्यो चोरी-रत, गध- अतृप्त, अनाश्रित, पाता दुख अत्यन्त ॥ ५७|| -गृद्ध को कही कदाचित् किचित् भी क्या सुख हो पाता ? प्राप्ति समय दुख फिर परिभोग समय अतृप्ति का दुख हो जाता ॥ ५८ ॥ अप्रिय गध-द्वेष रत भी दुख-परम्परा को है अपनाता । दुष्टचित्त से कर्म बांध, परिणाम काल मे वह दुख पाता ॥ ५६ ॥ गध-विरत नर अशोक हो, दुख-परम्परा से लिप्त न बनता । जल मे ज्यों कमलिनी - पत्र, त्यो बन अलिप्त वह जग मे रहता ॥ ६०॥ रस रसना का विषय कहाता, राग हेतु वह प्रिय बन जाता । द्वेष हेतु अप्रिय बनता, समता से वीतराग कहलाता ॥ ६१ ॥ रसनारस की ग्राहक है, फिर रस रसना का ग्राह्य कहाता । राग हेतु वह प्रिय कहलाता, द्वेष हेतु अप्रिय बन जाता ।। ६२ ।। श्रामिष-भोगगृद्ध रागातुर मत्स्य बडिश से बीधा जाता । तीव्र रसो मे गृद्ध मनुज त्यो अकाल मे ही विनाश पाता ॥ ६३ ॥ तीव्र द्वेष करता अप्रिय मे, दुख उसी क्षण वह पाता नित । 1 निज दुर्दान्त दोष से दुखित, इसमे रस का दोष न किंचित् ॥ ६४ ॥ मनोज्ञ रस मे प्रबल रक्त, श्रप्रिय मे करता द्वेष स्वतः । वह अज्ञानी दुख पाता, होता न विरत मुनि लिप्त श्रतः ॥ ६५॥ रस- आशानुग, नर गुरु- क्लिष्ट स्वार्थवश अज विविध त्रस स्थावर | जीवो का वध करता परितापित पीडित भी उन्हें अधिकतर ॥६६॥ रसलोलुप उत्पादन, रक्षण, सनियोग, व्यय, वियोग - लिप्त | रहता उसे कहाँ सुख, भोग समय भी रहता जबकि तृप्त ॥६७॥ रस- अतृप्त नर उसे ग्रहण में रहता लिप्त न होता तुष्ट । अतुष्टि दोष दुखी, पर वस्तु चुरा लेता वह लोभाविष्ट ||६८ ||
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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