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________________ इकतीसवाँ अध्ययन चरण-विधि यहाँ कहूँगा जीवो को सुख देने वाली चरण सुविधि को । जिसे ग्रहण कर बहुत जीव तर गए शीघ्र ससार - जलधि को ||१|| एक स्थान से विरत बने फिर एक स्थान मे करे प्रवृत्ति । करे निवृत्ति प्रसयम से, फिर सयम में नित करे प्रवृत्ति ॥२॥ पाप-प्रवर्तक राग-द्वेष उभय इन दो पापो को सत । सदा रोकता है वह ससृति मे न कभी रहता गुणवत ॥३॥ तोनो दड, गर्व तीनो फिर तीनो शल्यो को जो सत । सदा छोड़ता है वह मंडल मे न कभी रहता गुणवंत ||४|| देव मनुज तिर्यञ्च सम्वन्धी सब उपसर्गों को जो सत । सदा सहन करता वह ससृति मे न कभी रहता गुणवत ||५|| विकथा कषाय सज्ञा तथा उभय दुर्ध्यानो को जो सत । सदा छोड़ता है वह ससृति मे न कभी रहना मतिमत ||६|| इन्द्रिय विषयो, व्रतो, समितियो और क्रियाश्री मे जो सत । सदा यत्न करता वह ससृति मे न कभी रहता मतिमत ॥७॥ छह लेश्या, छह काय, अशन के छहो कारणो मे जो सत । सदा यत्न करता वह ससृति मे न कभी रहता गुणवत ||८|| प्रशन ग्रहण की प्रतिमाओ मे भय-स्थान सातो मे सत । सदा यत्न करता वह ससृति मे न कभी रहता मतिमंत ॥६॥ मदो, ब्रह्म-गुप्तियो तथा फिर दश विध भिक्षु धर्म मे सत । सदा यत्न करता वह ससृति मे न कभी रहता मतिमत ||१०|| श्रावक प्रतिमाओ मे तथा भिक्षु प्रतिमात्रो मे जो सत । सदा यत्न करता वह संसृति मे न कभी रहता गुणवंत ॥११॥ क्रिया, भूतग्रामो मे परमाधार्मिक देवो मे जो सत । सदा यत्न करता वह ससृति मे न कभी रहता गुणवंत ॥१२॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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