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________________ अ० २६ : सम्यक्त्व-पराक्रम १७१ यथा कि प्रथम समय मे बन्ध, दूसरे में होता वेदन | समय तीसरे मे उसका हो जाता समूल से छेदन ॥ १५१ ॥ - बद्ध व स्पृष्ट उदीरित वेदित होकर क्षय हो जाता है । तदनन्तर वह जीव अन्त मे अकर्म भी हो जाता है ।।१५२।। फिर अवशिष्ट आयु पालन कर अन्तर्मुहूर्त - मित मे रह जाता । तब वह योगो का निरोध करने मे झट उद्यत हो जाता ॥ १५३ ॥ सूक्ष्म क्रियातिपाति नामक फिर शुक्ल ध्यान मे वह रत होकर । पहले मन फिर वचन योग को रोक, व प्राणापान रोक फिर ॥ १५४॥ पांच ह्रस्व ग्रक्षर उच्चारण जितने स्वल्प समय मे मुनिवर फिर समुच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति नाम का ध्यान वहाँ घर ॥१५५॥ - वेदनीय आयुष्य नाम शुभ, गोत्र कर्म इन चारो को फिर । एक साथ क्षय करके ग्रात्मा अजर-अमर बन जाता आखिर ।। १५६ ॥ फिर ओदारिक और कार्मण तन को पूर्णतया वह तजकर । ऋजु श्रेणी को प्राप्त हुआ फिर ऊर्ध्व दिशा मे गति करता नर ।। १५७ ।। फिर अविग्रह से एक समय की गति से जाता सिद्ध-स्थल पर । साकारोपयोग युत सिद्ध-बुद्ध होता सब दुख अन्त कर ।। १५८॥ महावीर भगवान् श्रमण से यह सम्यक्त्व - पराक्रम का वर । अर्थ प्ररूपित प्रज्ञापित दर्शित उपदर्शित हुआ यहाँ पर ||१५||
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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