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________________ अ० २६ : सम्यक्त्व पराक्रम १६१ वीतरागता,"क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव,"मार्दव फिर भाव-सत्य है। करण-सत्य,फिर योग-सत्य",मन वचन देह को गुप्ति तथ्य है ॥१२॥ मन" व वचन" तन-समाधारणा, ज्ञान व दर्शन चरण पूर्णता । श्रोत्र-चक्षु" फिर घ्राण-रसन-स्पर्शन"-इद्रियनिग्रह निर्मलता॥१३॥ क्रोध मान" माया" व लोभ जय, राग-दोष-मिथ्यादर्शन-जय । शैलेशी फिर अकर्मता" ये इसके द्वार कहे है सुखमय ॥१४।। सुसंवेग से हे भगवन् । यह जीव प्राप्त क्या करता है ? सुसवेग से परमधर्म-श्रद्धा को जागृत करता है ।।१५।। ‘परमधर्म को श्रद्धा से फिर वह सवेग अधिक पाता है। अनतानुवधी क्रोध, मान, कपट व लोभ क्षय कर पाता है ।।१६।। नये कर्म वाधता नही व कषाय-क्षीण से मिथ्यादर्शन, की विशुद्धि कर फिर करता है सम्यग्दर्शन का आराधन ॥१७॥ दर्शन-शुद्धि-विशुद्ध कई उस भव मे हो जाते है सिद्ध । ५ किन्तु तीसरे भव का तो अतिक्रमण न कर सकते सशुद्ध ॥१८॥ सुनिर्वेद से भगवन् । यहाँ प्राप्त क्या करता है फिर प्राणी। __ इससे सुर-नर-तिर्यग जनित कामभोगो से होती ग्लानी ॥१९॥ -सब विपयो से विरक्त हो आरम्भ-त्याग फिर करता सद्य । . ससृति-पथ का कर विच्छेद, सिद्धि-पथ अपनाता अनवद्य ॥२०॥ धार्मिक-श्रद्धा से हे भगवन | प्राणी किस फल को है पाता? इससे विषय-सुखो को गृद्धि छोड, मानव विरक्त हो जाता ॥२१॥ तत गृहस्थी त्याग सर्वथा, वह होकर अनगार प्रमुख । छेदन-भेदन सयोगादिक शरीरिक व मानसिक दुख ॥२२॥ इन उपरोक्त सभी दुखो का वह करके विच्छेद तुरन्त । , अव्यावाच सुखो को श्रमण प्राप्त कर, लेता भव का अन्त ।।२३।। गुरु " साधर्मिक की सेवा से भन्ते । प्राणी क्या पाता ? गुरु सामिक सेवा से वह विनय धर्म को अपनाता ॥२४॥ । १ १ से ७१ क्रमाक सम्यक्त्व-पराक्रम विषयक ७१ प्रश्नोतर के सूचक है।
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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