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________________ १२८ उतराध्ययने मेरी ज्येष्ठ कनिष्ठ भगिनियों ने श्रम किया प्रतीवं प्रखर । दुःख - मुक्त कर सकीं न वे मेरी अनाथता यह नरवरें | ||२७|| 1 प्रति पल । वक्षस्थल ||२८|| सीच रही थी पतिव्रता अनुरक्ता भार्या परिचर्या करती अश्रुपूर्ण नेत्रों से मेरा खाना पीना स्नान गंध माला व विलेपन को छोड़ा | मेरे से प्रज्ञात-जात में, उसने इनसे मुह मोड़ा ||२६||| निशि - वासर में वह मेरे से अलग न होती थी क्षण भर । दु.ख मुक्त कर सकी न वह, मेरी अनायता यह नरवर ||३०|| इस प्रकार तब मैंने कहा कि इस अनन्त संसृति में आखिर । बार-बार दुसह्य वेदना का अनुभव करना होता चिर ॥ ३१ ॥ . T एक बार इस विपुल वेदना से यदि मुक्तं बनूं इस वार | तो मैं क्षान्त दान्त फिर निरारभ प्रव्रजित बनूं अनगार ||३२|| ऐसा चिन्तन कर सो गया नराधिप ! आँख मिली तत्क्षण | निशा अन्त के साथ वेदना का भी अन्त हुआ राजन् ||३३॥ अरुज हो गया प्रात. तदा पूछ स्वजनो से मैं अविलम्ब । क्षान्त दान्त फिर निरारम्भ प्रव्रजित बना अनगार प्रदभ ||३४|| तदन्तर मैं अपना तथा अपर मनुजो का नाथ बना । त्रस-स्थावर सब जीवो का भी नाथ बना संयम अपना ||३५|| वैतरणी सरिता आत्मा है कूट शाल्मली तरू श्रात्मा । कामदुधा गौ, आत्मा मेरी नन्दन वन भी यह आत्मा ||३६|| सुख दुख की कर्त्ता व विकर्त्ता यह आत्मा है तुम जानो । सुप्रस्थित दुस्प्रस्थित मित्र अमित्र यही है पहचानो ||३७|| सुन मुझसे एकाग्र अचल बन अब अनाथ का अपर स्वरूप । कायर नर सयम ले, फिर हो जाते शिथिल अनेकों, भूप ॥३८॥ 1 घार महाव्रत, जो प्रमाद वश सम्यग् पाल नही सकता । अनियन्त्रित, रस- लोलुप, बन्धन की जड़ काट नही सकता ||३६|| ईर्या भाषैषणाऽऽदान निक्षेपोच्चार समितियों मे नर । सजग न रहता वह न वीर वर-पंथ का हो सकता है अनुचर ॥४०॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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