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________________ बीसवाँ अध्ययनः महानिर्ग्रन्थीयं भाव भरा सिद्धो व संयतो को कर नमस्कार, गुण चुन लो । 7 साध्य, धर्म की ज्ञापक तथ्य पूर्ण शिक्षा तुम मुझसे सुन लो ॥१॥ प्रभूत रत्नाधिप मगधेश्वर श्रेणिक नृप क्रीड़ा करने को । गया एकदा मडि कुक्षि उपवन मे, मनस्ताप हरने को ॥२॥ नाना वृक्ष लता - आकीर्ण, विविध विहगो से सेवित था । नाना कुसुमाच्छन्न तथा नन्दनवन सम वह सुरभित था || ३ || -सयत सुसमाहित सुकुमार सुखोचित एक साधु को उसने । वहाँ वृक्ष के नीचे स्थित देखा है सहसा श्रेणिक नृप ने ॥ ४ ॥ उसका रूप देखकर राजा उसके प्रति आकृष्ट हुआ । और उसे फिर अतुलनीय प्रत्यन्त परम आश्चर्य हुआ ||५|| अहो । प्रार्य का रूप वर्ण कैसा ? व सौम्यता है कैसी । क्षान्ति, मुक्ति, भोगो मे अनासक्ति न कही देखी ऐसी ॥ ६ ॥ दे प्रदक्षिणा उसके चरणों मे कर नमन, बैठता है । महाराज ! मैं अनाथ हूँ अनुकम्पा करने वाला व मगधाधिप श्रेणिक नृप यो सुन, नाति दूर वह नाति निकट बद्धांजलि प्रश्न पूछता है ||७|| भोग समय इस तरुणावस्था मे प्रव्रजित हुए क्यो आर्य ! तत्पर हुए श्रमणता मे क्यो ? सुनना चाहूगा अनिवार्य || 5 || मेरा कोई भी नाथ नही । मित्र का कोई साथ नही || || हसा जोर से यो बोला फिर । सहज भागशाली हो तुम, कैसे 'न नाथ कोई तेरा फिर ॥१०॥ I हे भदन्त ! मैं नाथ वनूंगा तेरा, संयत । भोगो भोग । मित्र ज्ञातियो से परिवृत हो, क्योकि सुदुर्लभ नरभव-योग ॥११॥ - तुम हो स्वयं अनाथ व होते हुए अनाथ स्वय ऐसे । मगधाविप ! श्रेणिक ! ओरो का नाथ बनोगे तुम कैसे ॥१२॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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