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________________ अ० १६ : मृगापुत्रीय अति अनित्यं यह और अशुचि है 'तथा अशुचि-संभव तन हैं। यहाँ जीव का वास अंशाश्वत दुःख-क्लेश का भाजन है ॥१२॥ जल-बुलबुल सम क्षणिक अशाश्वत इस तन मे न मुझे रति है। . ___ पहले-पीछे इसे छोड़ना ही होगा निश्चित मति है ॥१३॥ व्याधि रोग का प्रालय, जन्म-मृत्यु से घिरा हुआ तन है।.. ' इस प्रसार नर-भव मे क्षण-भर भी न यहाँ लगता मन है ।।१४।। जन्म दुःख है जरा दु ख है रोग तथा मरना दुख है। अहो । दुखमय सारा जग है जहाँ जीव पाते दुख हैं ॥१५॥ सुत दारा वान्धव हिरण्य घर खेत तथा इस तन को भी। ' परवश मुझे छोड कर जाना होगा सब धन-जन को भी ॥१६॥ यथा नही किम्पाक फलो का सुन्दर होता है परिणाम। __ तथा भुक्त-भोगो का भी न कभी होता सुन्दर परिणाम ॥१७॥ सवल लिए बिना जो मानव लम्बे पथ को लेता है। भूख-प्यास से पीड़ित होकर दुखी निरन्तर होता है।॥१८॥ इसी तरह जो बिना धर्म के मानव पर-भव मे जाता। । व्याधि-रोग से पीड़ित होकर पग-पग पर वह दुख पाता ॥१६॥ सम्वल को ले साथ मनुज 'जो लम्बे पथ मे चलता है। । भूख-प्यास-वर्जित हो सुख पूर्वक मजिल पर बढता है ॥२०॥ इसी तरह जो धर्म पालकर नर पर-भव मे जाता है। .. व्याधि-रहित वह अल्प कर्म वाला, आनन्द मनाता है ॥२१॥ जिस प्रकार गृहपति स्वगेह मे अग्निकांड हो जाने पर। ___ तज असार सब सार वस्तुए वह निकाल लेता सत्वर ॥२२॥ इसी तरह यह जरा-मृत्यु से जलता रहता है ससार। पा निर्देश आपका इससे मैं बच निकलूगा उस पार ॥२३॥ मात-पिता ने कहा, पुत्र! श्रामण्य पालना अति दुष्कर। . * सुगुण सहस्रों मुनि को धारण करने पड़ते हैं वरतर ॥२४॥ शत्रु हो या मित्र सभी जीवों पर साम्या भाव रखना !! . . दुष्कर है हिंसा से बज करा जीवन-भर जग मे बसना ॥२५॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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