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________________ अ० १७ : पापश्रमणीय बिना प्रयोजन इधर-उधर फिरता व बैठता अस्थिर बन । आसन विधि मे जो कि असावधान होता वह पापश्रमण ॥१३॥ स-रज पाँव सो जाए जो फिर करे न शय्या प्रतिलेखन । 1 शयन विषय मे जो कि असावधान है वह है पापश्रमण || १४ || बार-बार दधि - दुग्ध विकृतियो का करता है जो भोजन । और तपस्या में रक्त है वह पाप कहलाता पापश्रमण ॥ १५॥ सूर्य उदय से सूर्य अस्त तक खाता रहता है क्षण-क्षण | प्रेरित प्रतिप्रेरित होता है वह कहलाता पापश्रमण ॥ १६ ॥ छोड़ सुगुरु को अन्य सप्रदायों में जाता दुराचरण । षन्मासान्तरं गच्छ बदलता वह कहलाता पापश्रमण ॥ १७॥ निज गृह को तज अपर घरों में व्याप्त होता है मुनिजन ! जो कि शुभाशुभ बता धनार्जन करता है वह पापश्रमण || १८ || सामुदायिकी भिक्षा तज निज ज्ञाति जनो के घर पर खाता । जो कि बैठता गृहि-शय्यापर वह मुनि पाप श्रमण कहलाता ॥ १६ ॥ पाच कुशील प्रसंवृत, साधु वेष घर, मुनियों मे निम्न स्तर । अत्र - पत्र न वह कुछ होता होता विष ज्यो निद्य यहाँ पर ॥ २० ॥ इन दोषो को संदा तजे, जो मुनियों मे सुव्रत कहलाता । यहाँ सुधा सम पूजित वह लोकद्वय आराधन कर पाता ॥२१॥ ११३
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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