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________________ ८२ उत्तराध्ययन लक्षण, स्वप्न, अग, विद्यादिक का प्रयोग जो करे यहाँ । वे न साधु कहलाते ऐसा आचार्यों ने स्पष्ट कहा ॥१३॥ जीवन अनियन्त्रित रख जो कि समाधि-योग से होते भ्रष्ट । ___ काम-भोग-रस-गृद्ध, असुर निकाय मे जाते, पाते कष्ट ॥१४॥ निकल वहाँ से जीव, बहुत फिर ससृति मे खाते चक्कर । अतीव कर्म-लेप से लिप्त, उन्हे फिर बोधि महा दुष्कर ॥१५॥ अगर किसी को दे-दे कोई धन-पूरित यह लोक अशेष। __ उससे भी न तृप्त होता आत्मा इतना दुष्पूर विशेष ॥१६॥ यथा लाभ है तथा लोभ है, लोभ लाभ से बढता जान । ___ वह द्विमाष-कृत कार्य न पूर्ण हुआ करोड से भी पहचान ॥१७॥ अनेक-चिन्ता, वक्ष कुचा, राक्षसी स्त्रियों मे गद्ध न हो। . लुभा पुरुष को जो कि दास की भाँति नचाती उसे अहो ॥१८॥ स्त्री को तजनेवाला श्रमण न गृद्ध बने उनमे कब ही । ____जान मनोज्ञ धर्म को, उसमे निज को स्थापित करे सही ॥१६॥ विशुद्ध प्रज्ञावान कपिल मुनि ने यह धर्म कहा सुखकर । जो कि करेंगे इसे, तरेंगे, उभय लोक-आराधन कर ॥२०॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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