SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विशेषता है जो अन्य सूत्रों में नहीं है । नमोत्थुरणं इस बात का परिचायक है कि गुरणी की पूजा उसके गुणों के कारण है न कि लिंग, जाति, वय, वेश या जन्म के कारण। नमोत्थुरणं का आनन्द तो इसके शब्दों में ही सन्निहित है । जरा हम भी व्यानपूर्वक इस अानन्द की अनुभूति करें। .. __ इसमें प्रथम शब्द 'नमोत्थुरणं' नमस्कार का सूचक है । वाकी अन्य पद ये बताते हैं कि नमस्कार किनको ? मैं जिन्हें नमस्कार करूं उनका स्वरूप क्या है ? उनके गुण क्या हैं ? ये प्रमुख गुण निम्न प्रकार हैं । १. अरिहंतारणं (अरिहंत) तीर्थंकर भगवान ने अपने कर्म, कपाय व विकार जो आत्म गुणों की हानि करने वाले लुटेरू हैं उन पर विजय प्राप्त कर ली है, अन्तर के दोषों को समूल नष्ट कर दिया है, अतः वे अरिहंत हैं। अरिहंत का अधिक स्पष्टीकरण नवकार मन्त्र व सम्यक्त्व सूत्र के सन्दर्भ में दिया जा चुका है। २. भगवंताणं (भगवान)-भगवान शब्द श्रद्धा और विश्वास का सूचक है । प्राचार्य हरिभद्र के अनुसार जो महान आत्मा पूर्ण ऐश्वर्य, पूर्ण वीर्य, पूर्ण यश, पूर्ण श्री; पूर्ण धर्म एवं पूर्ण प्रयत्न, इन छह पूर्णताओं से पूर्ण हैं, वही भगवान है । तीर्थंकर भगवान इन समस्त गरणों से युक्त हैं। इन गुणों में वे अद्वितीय हैं । अतः उन्हें भगवान कहना उचित ही है। जैन धर्म के अनुसार पूर्ण विकास पाने वाली आत्मा ही वस्तुतः भगवान हैं। हर आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति है । कहा भी हैं-"अप्पा सो परमप्पा"। ३. प्राइगराणं (आदिकर)-तीर्थंकर भगवान अपने-अपने समय में धर्म का पुनः प्रवर्तन करते हैं तथा नये सिरे से शासन की स्थापना करते है । यद्यपि धर्म अनादि है, अतः धर्म की उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता । तथापि यहां पर धर्म के व्यवहारिक रूप की अपेक्षा धर्मशासन की आदि मानी गयी है । तीर्थकर धर्म को विधि पूर्वक नये रूप में प्रस्तुत करते हैं व श्रु त धर्म द्वादशांगी का नव-निर्माण करते हैं। जैसे भगवान महावीर ने पार्श्व प्रभु के चात्रुर्याम संवर धर्म के स्थान पर पंच महाव्रतरूप धर्म की स्थापना की । मूलतः धर्म अपरिवर्तनीय व शाश्वत है। फिर भी स्वानुभूति के बल पर तीर्थकर अपने शासन में धर्म का स्वतन्त्र प्रतिपादन करते हैं अतः वे आदिकर कहे जाते हैं । ४. तित्थयराणं (तीर्थंकर)-अरिहंत भगवान तीर्थकर कहलाते हैं। इसमें दो शब्द हैं, तीर्थ-+ कर । तीर्थंकर का अभिप्राय हा तीर्थ के कर्ता । जिससे तिरा जाय वह तीर्थ है । तीर्थ तिरने का साधन है। यह संसार समुद्र महा विकराल है । इसमें काम क्रोधादि कषाय रूपी अनेक भयावह सामायिक-सूत्र | ५२
SR No.010683
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendra Bafna
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1974
Total Pages81
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy