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________________ ८८ अथ अष्टम सर्गः महोदयेनोदितमहना तु वदामि तद्वच्छणु भव्य जातु । यदम्निजानेमरणम्य तन्वं यथा निवर्नेन नयोश्च मन्वं ।।१।। अर्थ-हे भव्य ! इस जीव को जिम कारण से जन्म प्रोर मररण करना पड़ रहा है और जिस उपाय से वह दूर हो सकता है' इस बात को दिव्य ज्ञान के धारक प्रहन्त भगवान् ने बहुत अच्छी तरह बतलाया है, उसो के अनुसार मैं तुझे कुछ थोड़ासा बता जीवोऽप्यजीवश्चम्तथापदार्थ: स्यात् पञ्चधाऽजीवडगानिहार्थः धोऽप्यधर्मः ममयो नमश्च स्यात् पञ्चमः पुट्ठलनामकश्च ।२। प्रय-भगवान्ने मूल में दो तरह की चीज बतलाई है, मूल में एक तो जीव और दूसरी प्रजोव, उसमें से प्रजीव के पांच मेव हो जाते हैं, धर्म १ अधर्म २ काल ३ प्राकाश ४ और पुद्गल ५। नभन्तु रङ्गम्थलमस्तिकालः श्रीमानयंक्लूप्तिकलारसाल: अधर्मनामा यवनिविभातु धर्मोऽत्रकर्मप्रकगेऽथवा तु ।।३।। प्रयं-उनमें से प्राकाश द्रव्य तो रङ्गभूमि का काम करता है, और कालद्रव्य नाना प्रकार की चेष्टा करानेवाला है, अधर्म
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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