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________________ ८६ मत्र निस्तरणाय तवक्रम-समुदयः खलु पोत इवोचमः वचनमस्त्वमृतं मुखचन्द्रतः किमपि तृप्तिकरं भगवन्नतः । ३० । होने के लिये आपके अर्थ- हे प्रभो ! संसार समुद्रसे पार चरणों का समागम जहाज सरीखा उत्तम है, प्रत: हे नाथ प्रापके मुखरूप चन्द्रमा का वचनरूप प्रमृत भी बरसना चाहिये जिससे मुझ सरीखे को तृप्ति हो सके, सारांश यह कि धर्मोपदेश दीजिये । जन्म वा मरणं वेदं कि निवन्धनमात्मनः कुनश्च विनिवर्तेतेति शुश्रूपुरहं प्रभो ! ।। ३१ ।। प्रयं हे प्रभो ! मैं प्राप से यह सुनना चाहता हूँ कि इस ग्रात्माको जन्म प्रोर मररण तो क्यों करना पड़ता है, और उनसे यह किस तरह छूट सकता है । चराचरमिदं सर्वं स्वस्तेि ज्ञानदर्पणे । प्रतिविम्वितमस्तीति श्रधाति न कः पुमान् । ३२ । प्रथं हे स्वामिन् इस बातको तो कौन नहीं मानता कि श्राप के ज्ञानरूप दर्पण में ये चर और प्रचर सभी तरह की चीजें साफ २ झलक रही है । युष्मत्पदप्रयोगेण सम्भवेदुत्तमः पुमान् । मादेशो भवतामस्ति न परप्रत्यवायकृत् ॥ ३३॥ प्रयं - लौकिक में तो युष्मत् पद का प्रयोग मध्यम पुरुष के लिये होता है और मावेश होता है वह अपने से पहले वाले को दूर
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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