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________________ मतीत्य कोमारमभृन्मदङ्गः कुलायमिद्धः मुवयः प्रमंगः । श्रीपादपो वा मुमनस्त्वयुक्तः कुचो युवल्या अथवा ममुक्तः।१७। प्रयं-उपर्युक्त प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हो उसने अपने कुमारपनका उल्लंघन कर दिया जिससे कि प्रब वह कामदेव से भी बढ़कर सुन्दर शरीर का धारक हो गया और जिसप्रकार पक्षोको प्राश्रय देनेवाला घोंसला हुवा करता है उसी प्रकार नवयौवन को पाकर कुलवृद्धि करने के लिये विवाह योग्य होगया। एवं फलों से लदे हुये वृक्ष को तरह मानसिक विकाशयुक्त हो लिया प्रथश युवति का स्तनमण्डल जिपप्रकार मोतियों में मुशोभित होता है उसीप्रकार वह भी मायक और मुसंघटित वचनों को बोलने लगा। धगधिपानामिति चित्रमाला-दयोऽभवन पंचमहम्बालाः । मकीतकोत्पनियोऽमकम्य गाग्वा यथा कल्पमहीमहम्य ।१८। प्रयं तब इसके कौतुक को उत्पन्न करने और बढ़ाने के लिये भले भले गजानों को नित्रमाला प्रादि नामवालो पांच हजार लड़कियां सहयोगिनी हुई जमे कि फूलोंसे भरी हुई कल्पवृक्ष को शाखायें। एकम्य वृक्षम्य भवन्ति शाग्वा विधाग्नका अथवा विशाग्याः । यथा पयोधेपि भान्ति नद्यम्नथा युक्त्योऽवनिपम्य मद्यः ।१९। अर्थ-जिसप्रकार एक ही वृक्षके एक माय अनेक शाग्वायें होतो है अथवा एक चन्द्रमा के पीछे अनेक तारिकायें रहा करती हैं और समुद्र में अनेक नदियां समा जाया करती है उसी प्रकार एक राजा के भी बहुत सी रागी होती हैं ।
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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