SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ तो foot पुनग्नदन्तं श्रीधराऽपि भगवजिनमन्तं । निधाय हृदये गुणवत्या आर्थिकात्वमभजन वि सन्याः | २५ | प्रर्थ - यशोधरा की माता श्रीधराने जब यह वृत्तान्त सुना वह भी जिन भगवान को अपने मन में स्मरण करके गुणवती नाम की उत्तम प्रायिका के पास जाकर प्रायिका बन गई । रश्मिवेग देत्य नृपत्वं भुक्तवान स्वजनकोत्तरत्वं । स्वप्रतापजित भास्कर देवः व्याप्तवश्चियशमा स्वयमेव । २६ । प्रथं - इसलिये राजा बनकर रश्मिवेगने प्रपने पिता के उत्तराधिकार को भोगना शुरू किया जो कि अपने प्रतापके द्वारा तो जीतनेवाला हुवा श्रौर प्रपने चन्द्रमा सरीखे निर्मल यशके द्वारा सारे भूमण्डल पर प्रसिद्ध होगया । सिद्धकुजिनमन्दिरसेवां कर्तुमेत्य म निजात्ममुदे वा । चन्द्रमाप च हरीत्युपशब्दं भव्य चातककृते मुनिमन्दं । २७ | प्रथं वह एक रोज सिद्धकूट जिनमन्दिर की पूजा करने के लिये गया था तो वहां उसने हरिश्चन्द्र नाम मुनि के वर्शन किये जो कि मुनिराज भव्य पुरुष रूप पपीहों के लिये मेघके समान थे प्रतः उनके दर्शनोंसे उसे बड़ी प्रसन्नता हुई । पादवन्दकतयात्वघलोपी चारणर्द्धिसहितादमुतोऽपि । सावधान मनमा खलु शर्म - कारणंजलमिवोत्तमधर्मं |२८| अर्थ- जो कि मुनिराज चाराद्धि के धारक थे उनको पहले तो उसने नमस्कार किया जिससे कि उसके पाप कर्म नष्ट होगये
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy