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________________ ४७ प्रर्थ - तुम्हारे पिता पूर्णचन्द्र तो भद्रबाहु नामके श्रीगुरुके निकट में मुनि होते हुये सर्वावधि ज्ञानके धारक बन गये, जो कि सर्वावधिज्ञान मोक्षमार्ग में कलेवे का काम करता है, उमो भव से मुक्ति दिलाने वाला है। उन्हीं पूर्णचन्द्र मुनिराजके पास में भी मुनि हवा हूँ । सहायिका दान्तमतिः प्रतीयते गतायिकान्यं च ततोऽम्बिका न ने करोति नारी जनुरत्रमार्थकं विनावतजीवनमत्यपार्थक ३२ । प्रयं-प्रायिकायोंकी नायिका वान्तमनि के पास तेरो माता भी प्रायिका बनकर ने इस नारो जन्म को सफल बना रहो है, क्योंकि बिना व्रतोके धारण किये यह नर जन्म व्यय हो कहा जाता है। नवनाथोऽशनियोपहस्तिनां गतोय मां मारयित च मे पिता समागती बोधमवाप्य बोधितः तं दधाति मनानं हितं । ३३ । अर्थ- हे माता तुम्हारे स्वामी और मेरे पिता राजा सिमेन मरकर प्रशनिधषि हस्ती हुये हैं। वह प्रशनिघोष हाथी एक रोज मुझे देवकर मेरे माग्ने को प्राया तो मेने उसे समझाया जिससे कि समन कर उसने मेरे मे ले लिये जिसमें कि उसका प्राध्मा का उद्धार हो । स एकदा मासिकवृनपारणा परायणोऽम्मःस्थल मेन्य पङ्गमान निमज्य निर्गन्तुमशक इत्यतः समाधिमेत्र प्रबन्ध संमान ३४ | प्रथं-वह एकबार एक महीने का उपनाम करके पारणा के लिये नदी में पानी पीने की गानो कीचड़ में फंस गया, उपवासों के
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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