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________________ अपितु मानव मात्र के कल्याण करने के लिये भहिंसागुव्रत की पुष्टिरूप 'दयोदय' - मृगसेन धीवर का कल्याण करने के भाषात्मक काव्य को; सत्य और अचौर्य की पुष्टि के लिये प्रस्तुत भद्रोदय काव्य को, ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये 'वीरोदय' तथा परिग्रह परिमाण की रक्षा के लिये 'जयोदय' महाकाव्य को बनाया है। आचार्य श्री की गति संस्कृत एवं हिन्दी के अनेक काव्यों के रचने में कितनी सार्थक हुई है यह तो आपके द्वारा विरचित पृथक् २ प्रन्थों के गम्भीर एवं निष्पक्ष अवलोकन से ही ज्ञात हो सकेगा । प्रस्तुत प्रन्थ में आचार्य श्री ने अपना लाघव प्रदर्शित करते हुये यह सब गुरु कृपा का ही फल बतलाया है साथ ही सत्य की महिमा को अस्तित्व और नास्तित्व के विधि एवं निषेध द्वारा बहुत ही सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्ति दी है। इस प्रन्थ में समुद्रदत्त (भद्रदत्त) के व्यापार करने की अनुमति लेते समय, पिता माता आदि का वार्ताछाप, रत्नों के हरण होने के समय उन्मन्त समुद्रदत्त की दीन पुकार, तथा रानी की सद्बुद्धि एवं कुशलता सूचक प्रयासादि सभी दृश्य रोमांचकारी रूपमें प्रदर्शित किये गये हैं । I सरागी एवं वीतरागी व्यक्ति की रचना में जमीन और आसमान का अन्तर होता है । वीतरागी की रचना हमें इस लोक सम्बन्धी नीतियों का सदुपदेश देने के साथ ही साब परलोक में भी अभ्युदय प्राप्त करने के मार्ग को बिजली के समान तेज और वजन दार शब्दों के द्वारा हृदय-तल पर सदा के लिये स्थापित कर देती है । प्रायः सभी जैनाचार्यों की कथनी में पूर्वभव का सत्य वर्णन होता
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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