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________________ ३६ हे बोर वोर ! प्राप तो ऐसा करना कि राज दरबार लगाकर कुछ बेर बहीं बंटना । इत्युक्त्वा तुष्णीमस्थादाजी तावदिहागतं । श्रीभूतिं वीक्ष्य सम्प्राह शृणु मन्त्रिन्ममेप्सितं । ४० अर्थ- राजा से इस प्रकार कह कर रानी चुप हो हो पाई यी कि इतने में श्री मूर्ति भी वहां प्रा पहुंचा, उसे देखकर के रानी बोली कि है मन्त्रीजी सुनो प्राज तो मेरी एक इच्छा है । श्रुतमस्ति भवान दक्षः शतरजाख्य खेलने । भवता कलयिष्यामि तदद्य गुणशालिना । ४१ अर्थ-सुना है कि प्राप शतरंज खेलने में बड़े चतुर हैं, इस लिये प्राज में श्राप सरल चतुर पुरुष के साथ मे शतरंज खेलूंगी। सम्मानपूर्वकमितिप्रतिपत्तिदा वा संक्रीट के तमनु चाटुवचः प्रभावात् । यो विजित्य परिमुग्धमितोऽमिमम्य यज्ञोपवीतमपिमुद्रिकया समस्य प्रयं - इस प्रकार सम्मान पूर्वक उसको उस रानी ने खेलने के लिये बिठा लिया, जिस खेल में कि रानी को मीठो मोठी बातों में फँसकर वह अपने प्रापको भूल गया ग्रतः रानी ने | बहुत हो शीघ्र उसके गले में की छुरी, जनेऊ और उसकी मुद्रिका इन तीनों को जीत लिया । दाम्यं समाह खलु तत्त्रयमेव दत्वा गङ्गीति मन्त्रिमदनं भृगु दामि गत्वा भद्रस्य रत्नगुलिकां द्र ुतमानय त्वं किं सम्बदानि परमत्र तु वेन्सि तत्वं ।
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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